SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ. कमल जैन 2. गरानुष्ठान -- जिस अनुष्ठान के साथ दैविक भोगों की अभिलाषा जुड़ी रहती है उसे मनीषीजन गर कहते हैं। भोग वासना के कारण कालान्तर एवं भवान्तर में वह आत्मा के दुःख और अधोपतन का कारण बनता है। 3. अनानुष्ठान -- जो धार्मिक क्रियायें विवेकहीन होकर लोक-परम्परा का पालन करते हुये भेड़ चाल की तरह की जाती हैं उन्हें अनानुष्ठान कहा जाता है। 4. तहेतु अनुष्ठान -- मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से जो शुभ क्रियायें, धार्मिक व्रत या अनुष्ठान किये जाते हैं उन्हें तद्धेतु अनुष्ठान कहा जाता है। यद्यपि राग का अंश यहाँ भी विद्यमान रहता है, परन्तु प्रशस्त राग होने से वह मोक्ष का कारण है इसलिये सदानुष्ठान कहा जाता है। 5. अमृतानुष्ठान -- जिस अनुष्ठान के साथ-साथ साधक के मन में मोक्षोन्मुख आत्मभाव तथा वैराग्य की आत्मानुभूति जुड़ी रहती है और साधक के मन में अर्हत पर आस्था बनी रहती है उसे अमृतानुष्ठान कहा गया है -- आदर, प्रीति, अविघ्न, सम्पदागम, जिज्ञासा, तज्ज्ञसेवा, तज्ज्ञअनुग्रह, ये सदनुष्ठान के लक्षण कहे गये हैं। 6. असंगानुष्ठान -- इसमें समता भाव का उदय होता है। इच्छाओं-आकांक्षाओं का नाश होता है सदाचार का पालन करते हुये साधक मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होता है। इसके चार भेद कह गये हैं :(क) प्रीति -- कषाय से युक्त व्यापारों को प्रीति अनुष्ठान कहा गया है। (ख) भक्ति -- आचार आदि क्रियाओं से युक्त होना भक्ति है। (ग) विचार -- शास्त्रानुकूल आचार-विचार का चिन्तन एवं उपदेश वचनानुष्ठान कहे जाते (घ) असंगानुष्ठान -- वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति को असंगानुष्ठान कहा गया है। इसे अनालम्बन योग भी कहते हैं। इन अनुष्ठानों के योग से योगी स्वभावतः बाह्य वस्तुओं के प्रति ममता रहित होकर निर्ममत्व की ओर मुड़ता है, केवल ज्ञान को प्राप्त कर अंत में सिद्ध दशा को उपलब्ध कर लेता है। आचार्य कहते हैं अपनी प्रकृति का अवलोकन करते हुये, लोक परम्परा को जानते हुये, शुद्ध योग के आधार पर प्रवृत्ति का औचित्य समझ कर, बाह्य निमित्त शकुन, स्वर नाड़ी, अंग-स्फुरण आदि का अंकन करते हुये, योग में प्रवृत्त होना चाहिये। योगीजन असंगानुष्ठान को विभिन्न संज्ञाओं से पुकारते हैं। सांख्य दर्शन में प्रशान्त वाहिता, बौद्धदर्शन में विसंभाग परिक्षय तथा शैवधर्म में शिववर्त्म कहा गया है। कोई इसे ध्रुव मार्ग भी कहते हैं।७१ वस्तुतः सिद्धावस्था अथावा निर्वाण अनेक नामों से अभिहित होकर भी एक ही स्थिति का बोधक है।७२ मुक्त आत्माओं को विभिन्न परम्पराओं में सदाशिव, परब्रम, सिद्धात्मा, तथता आदि नामों से पुकारा जाता हैं।७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy