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________________ डॉ. कमल जैन 3. बला दृष्टि इस दृष्टि में योगी सुखासन से युक्त होकर सुदृढ़ आत्म दर्शन को प्राप्त करता है । उसे तत्त्व ज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न होती है तथा योग साधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। इसमें तृष्णा का अभाव हो जाने से साधक उल्लासमय स्थिति को प्राप्त कर लेता है । ३५ इस दृष्टि में अष्टांग योग का तीसरा अंग आसन सधता है। ३६ आगमों से ज्ञात होता है कि महावीर आसन योग के बिना काय योग में स्थिरता नहीं मानते थे । वह चंचलता से रहित होकर अनेक प्रकार के आसन में स्थिर होकर ध्यान करते थे । -- 4. दीप्रा दृष्टि इसमें अन्तर्हृदय में प्रशान्त रस का सहज प्रवाह बढ़ता रहता है । तत्त्व - श्रवण सघता है, आत्मोन्मुखता का भाव उदित होता है। वह द्रव्य प्राणायाम रेचक, पूरक, कुम्भक तक ही सीमित नहीं रहता किन्तु भाव प्राणायाम की भी साधना करता है। इसमें बाह्य-भावों (विभावदशा) का रेचन किया जाता है । अन्तरात्म-भावों का पूरक किया जाता है। और चिन्तन, मनन उस आत्मभाव को स्थिर (कुम्भक ) किया जाता है। आत्म विकास में इस भाव प्राणायाम का बड़ा महत्त्व है। इस दृष्टि में साधक आत्म विकास की इस भूमिका पर पहुँच जाता है कि वह धर्म को प्राणों से भी अधिक महत्त्व देने लगता है, प्राण - संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता ३७ इसमें 'प्राणायाम' सिद्ध होता है । ३८ -- उपर्युक्त चार दृष्टियों में 'मिथ्यात्वं' की आंशिक सत्ता बनी रहती है। इन दृष्टियों में धार्मिक व्रत - नियमों का पालन तो होता है, किन्तु आन्तरिक विशुद्धि अल्प होती है। यदि तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो भी जाये, तो भी वह स्पष्ट नहीं होती है । 5. स्थिरादृष्टि -- इसमें साधक को सूक्ष्म-बोध प्राप्त होता है। उसके लिये समस्त पदार्थ मात्र ज्ञेय होते हैं। संसार की क्षणभंगुरता एवं अस्थिरता का ज्ञान हो जाने के कारण वह उनमें आसक्त नहीं होता । इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं। धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का परिहार हो जाता है और साधक परमात्म स्वरूप को पहचानने लगता है । इस दृष्टि में स्थित साधक के मिथ्यात्व - ग्रन्थि का भेदन हो जाता है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। वह आत्मा को ही अजर-अमर और उपादेय मानता है। २६ इस दृष्टि में योग का पाँचवा अंग प्रत्याहार सधता है । ४० 6. कान्तादृष्टि इसमें साधक को अविच्छिन्न सम्यग्ज्ञान रहता है, सांसारिक कार्य करते हुये भी उसका मन आत्मा में ही लगा रहता है, वह संसारिक भोगोपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, चित्तवृत्तियाँ बहुत कुछ उपशांत हो जाती हैं, ४१ इसमें योगी को अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा' सधता है। धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में रस नहीं लेता । ४२ 11 7. प्रभादृष्टि ४३ इसमें संस्थित योगी ध्यान प्रिय होता है। इसमें सूर्य के प्रकाश की तरह अत्यन्त सुस्पष्ट तत्त्वानुभूति या आत्मानुभूति होती है। इसमें राग-द्वेष, मोह बाधा नहीं देते। सहज रूप से ही सत्प्रवृत्ति की ओर उसका झुकाव हो जाता है । प्रशान्तं भाव की प्रधानता हो जाती है। काम के साधनों को जीत लेता है। इसमें योग का सातवाँ अंग ध्यान सधता है । ४४ -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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