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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
3. देशविरति -- अणुव्रतों का पालन करता हुआ साधक मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ता है। सम्पूर्ण । चारित्र की इच्छा विकसित होती है। ऐसा साधक सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला, श्रद्धावान, धर्मोपदेश के योग्य, धर्म क्रिया में अनुरक्त, यथाशक्ति अध्यात्म साधना में लीन तथा वीतराग दशा प्राप्त होने तक समत्व की साधना करने वाला होता है। ऐसे साधक को परमार्थलक्षी और सूक्ष्म उपदेश देना चाहिये।२६ 4. सर्वविरति -- सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने से अनुकम्पा, निर्वेद, प्रशम, अनुभाव आदि गुण उसे स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं।२७ अब वह सब पापों का पूर्णरूप से त्याग करता है। ____ इन चारों अधिकारियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार उपदेश देना चाहिये। अपुनर्बन्धक को लोक-धर्म का अर्थात् सदाचरण आदि का, सम्यग्दृष्टि को अणुव्रत आदि के पालन का, देशविरति को संयम और महाव्रतों के पालन का और सर्वविरति को परमार्थ लक्षी आध्यात्मिक उपदेश देना चाहिये।२८
आचार्य हरिभद्र ने योग का एक भेद शास्त्रयोग और निशस्त्रयोग भी किया है। शास्त्रयोग उस योगी का साधना है, जिसके मोक्ष तक पहुंचने में अनेक जन्म रहते हों। निशस्त्रयोग उस साधक को सधता है, जिसे केवल उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करना होता है।२६ योगदृष्टियाँ
योग साधना के क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं को आचार्य हरिभद्र ने आठ दृष्टियों के रूप में भी प्रस्तुत किया है। आचार्य ने श्रद्धा का बोध कराने वाली तथा असत् प्रवृत्तियों को क्षीण करके सत प्रवृत्तियों की स्थापना करने वाली साधना को ही दृष्टि कहा है। सामान्य दृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योग दृष्टियों तक पहुँचता है। 1. मित्रादृष्टि०-- आत्माभ्युदय की पहली अवस्था है, इसमें साधक के हृदय में प्राणी मात्र के लिये मैत्री भाव बढ़ने लगता है। इसमें सम्यादर्शन होने पर भी श्रद्धोन्मुख आत्मबोध की मन्दता होती है, अहिंसादि यमों को पालन करने की इच्छा और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति अखेदता होती है वह धार्मिक क्रियाओं को प्रथा के रूप में करता तो है, परन्तु उसकी दृष्टि पूर्णतया सम्यक् नहीं हो पाती है, परन्तु अन्तर्जागरण और गुणात्मक प्रगति की यात्रा शुरु हो जाती है।३१ साधक सर्वज्ञ को अन्तःकरण से नमस्कार करता है। आचार्य एवं तपस्वी की यथोचित सेवा करता है, औषधदान, शास्त्रदान, जिन-पूजा, जिनवाणी के श्रवण, पठन, स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त रहता है। इसकी तुलना 'अष्टांगयोग के प्रथम अंग 'यम' से की गई है।३२ 2. तारा दृष्टि -- इसमें मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक स्पष्ट होता है। साधक योगनिष्ठ साधकों की सेवा करता है, इस सेवा से उसे योगियों का अनुग्रह प्राप्त होता है। योग साधना और श्रद्धा का विकास होता है, आत्महित बुद्धि का उदय होता है। चैत्तसिक उद्वेग मिट जाते हैं। शिष्ट जनों से मान्यता प्राप्त होती है। इससे अष्टांग योग का दूसरा अंग 'नियम सधता है अर्थात् शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा परमात्मचिन्तन जीवन में फलित होते हैं।२४
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