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________________ श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १८ आज न तो विज्ञान ही चरम सत्य है और न आगम के नाम पर जो कुछ है वही कर सत्य है। आज न तो आगमों को नकारने से कुछ होगा और न वैज्ञानिक सत्यों को नकारने से विज्ञान और आगम के सन्दर्भ में आज एक तटस्थ समीक्षक बुद्धि की आवश्यकता है। जैन सृष्टिशास्त्र और जैन खगोल-भूगोल में भी, जहाँ तक सृष्टिशास्त्र का सम्बन्ध है, वे आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के साथ एक सीमा तक संगति रखता है। जैन सृष्टिशास्त्र के अनुसार सर्वप्रथम इस जगत् को अनादि और अनन्त माना गया है, किन्तु उसमें जगत की अनादि अनन्तता उसके प्रवाह की दृष्टि से है। इसे अनादि अनन्त इसलिए कहा जाता है कि कोई भी काल ऐसा नहीं था जब सृष्टि नहीं थी या नहीं होगी। प्रवाह की दृष्टि से जगत अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश अर्थात् सृष्टि और प्रलय का क्रम भी चलता रहता है, दूसरे शब्दों में यह जगत् अपने प्रवाह की अपेक्षा से शाश्वत होते हुए भी इसमें सृष्टि एवं प्रलय होते रहते हैं क्योंकि जो भी उत्पन्न होता है उसका विनाश अपरिहार्य है। फिर भी इसका सृष्टा या कर्ता कोई भी नहीं है। यह सब प्राकृतिक नियम से ही शासित है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करे तो विज्ञान को भी इस तथ्य को स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है कि यह विश्व अपने मूल तत्त्व या मूल घटक की दृष्टि से अनादि-अनन्त होते हुए भी इसमें सूजन और विनाश की प्रक्रिया सतत् रूप से चल रही है। यहाँ तक विज्ञान व जैनदर्शन दोनों साथ जाते हैं। दोनों इस संबंध में भी एक मत हैं कि जगत् का कोई सृष्टा नहीं है और यह प्राकृतिक नियम से शासित है। साथ ही अनन्त विश्व में सृष्टि लोक की सीमितता जैन दर्शन एवं विज्ञान दोनों को मान्य है। इन मूल-भूत अवधारणाओं में साम्यता के होते हुए भी जब हम इनके विस्तार में जाते हैं, तो हमें जैन आगमिक मान्यताओं एवं आधुनिक विज्ञान दोनों में पर्याप्त अन्तर भी प्रतीत होता है। अधोलोक, मध्यलोक एवं स्वर्गलोक की कल्पना लगभग सभी धर्म-दर्शनों में उपलब्ध होते है, किन्तु आधुनिक विज्ञान के द्वारा खगोल का जो विवरण प्रस्तुत किया जाता है, उसमें इस प्रकार की कोई कल्पना नहीं है। वह यह भी नहीं मानता है कि पृथ्वी के नीचे नरक व ऊपर स्वर्ग है। आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार इस विश्व में असंख्य सौर मण्डल हैं और प्रत्येक सौर मण्डल में अनेक ग्रह-नक्षत्र व पृथ्वियां है। असंख्य सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र की अवधारणा जैन परम्परा में भी मान्य है। यद्यपि आज तक विज्ञान यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि पृथ्वी के अतिरिक्त किन ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन पाया जाता है, किन्तु उसने इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक ऐसे ग्रह-नक्षत्र हो सकते है जहाँ जीवन की संभावनाएं है। अतः इस विश्व में जीवन केवल पृथ्वी पर है यह भी चरम सत्य नहीं है। पृथ्वी के अतिरिक्त कुछ ग्रह-नक्षत्रों पर जीवन की संभावनाएं हो सकती है। यह भी संभव है कि पृथ्वी की अपेक्षा कहीं जीवन अधिक सुखद एवं समृद्ध हो और कहीं वह विपन्न और कष्टकर स्थिति में हो। अतः चाहे स्वर्ग एवं नरक और खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी हमारी अवधारणाओं पर वैज्ञानिक खोजों के परिणाम स्वरूप प्रश्न चिन्ह लगे, किन्तु इस पृथ्वी के अतिरिक्त इस विश्व में कहीं भी जीवन की संभावना नही है, यह बात तो स्वयं वैज्ञानिक भी नहीं कहते हैं। पृथ्वी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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