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सागरमल जैन
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इनमें प्रतिपादित तथ्य आधुनिक विज्ञान के प्रतिकूल जाते है, तो उससे सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आंच नहीं आती है। हमें इस भय का परित्याग कर देना चाहिए कि यदि हम खगोल एवं भूगोल
सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिक गवेषणाओं को मान्य करेंगे तो उससे जिन की सर्वज्ञता पर कोई आँच आयेगी । यहाँ यह भी स्मरण रहे कि सर्वज्ञ या जिन केवल उपदेश देते हैं ग्रन्थ लेखन का कार्य तो उनके गणधर या अन्य स्थविर आचार्य ही करते हैं। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सर्वज्ञ के लिए उपदेश का विषय तो अध्यात्म व आचारशास्त्र ही होता है खगोल व भूगोल उनके मूल प्रतिपाद्य नहीं है। खगोल व भूगोल सम्बन्धी जो अवधारणायें जैन परम्परा में मिलती हैं वह थोड़े अन्तर के साथ समकालिक बौद्ध एवं हिन्दू परम्परा में भी पायी जाती है । अतः यह मानना ही उचित होगा कि खगोल एवं भूगोल सम्बन्धी जैन मान्यताएँ आज यदि विज्ञान सम्मत सिद्ध नहीं होती है तो उससे न तो सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आँच आती है और न जैन धर्म की आध्यात्मशास्त्रीय, तत्वमीमांसीय एवं आचारशास्त्रीय अवधारणाओं पर कोई खरोंच आती है। सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ग्रन्थ जिसमें जैन आचारशास्त्र और उसकी अहिंसक निष्ठा के विरुद्ध प्रतिपादन पाये जाते हैं, किसी भी स्थिति में सर्वज्ञ प्रणीत नहीं माना जा सकता है । जो लोग खगोल- भूगोल सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्यों को केवल इसलिए स्वीकार करने से कतराते हैं। कि इससे सर्वज्ञ की अवहेलना होगी, वे वस्तुतः जैन आध्यात्मशास्त्र के रहस्यों से या तो अनभिज्ञ हैं या उनकी अनुभूति से रहित है। क्योंकि हमें सर्वप्रथम तो यह स्मरण रखना होगा कि जो आत्म-द्रष्टा सर्वज्ञ प्रणीत है ही नहीं उसके अमान्य होने से सर्वज्ञ की सर्वज्ञता कैसे खण्डित हो सकती है ? आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि सर्वज्ञ आत्मा को जानता है, वही यर्थाथ सत्य है । सर्वज्ञ बाह्य जगत् को जानता है यह केवल व्यवहार है। भगवतीसूत्र का यह कथन भी कि 'केवली सिय जाणइ सिय ण जाणई' इस सत्य को उद्घाटित करता है कि सर्वज्ञ आत्म-द्रष्टा होता है। वस्तुतः सर्वज्ञ का उपदेश भी आत्मानुभूति और आत्म विशुद्धि लिए होता है जिन साधनों से हम शुद्धात्मा की अनुभूति कर सके, आत्म शुद्धि या आत्म विमुक्ति को उपलब्ध कर सके, वही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपाद्य है।
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यह सत्य है कि आगमों के रूप में हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है, उसमें जिन वचन भी संकलित है और यह भी सत्य है कि आगमों का और उनमें उपलब्ध सामग्री का जैनधर्म, प्राकृत साहित्य और भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्व है। फिर भी हमें यह स्मरण खना होगा कि आगमों के नाम पर हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है, उसमें पर्याप्त विस्मरण, परिवर्तन, परिवर्धन और प्रक्षेपण भी हुआ है। अतः इस तथ्य को स्वयं अन्तिम वाचनाकार वर्द्धि ने भी स्वीकार किया है। अतः आगम वचनों में कितना अंश जिन वचन है सम्बन्ध में पर्याप्त समीक्षा, सर्तकता और सावधानी आवश्यक है 1
इस
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आज दो प्रकार की अतियाँ देखने में आती है एक अति यह है कि चाहे पन्द्रहवीं शती के लेखक ने महावीर - गौतम के संवाद के रूप में किसी ग्रन्थ की रचना की हो, उसे भी बिना समीक्षा के जिन वचन के रूप में मान्य किया जा रहा है और उसे ही चरम सत्य माना जाता
- दूसरी ओर सम्पूर्ण आगम साहित्य को अन्धविश्वास कहकर नकारा जा रहा है। आज वश्यकता है नीर-क्षीर बुद्धि से आगम वचनों की समीक्षा करके मध्यम मार्ग अपनाने की ।
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