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________________ धर्म चन्द जैन होने के कारण उसे व्यपदेश्य बतलाया है। अभिधर्मकोश के वाक्यों 'चक्षुर्विज्ञानसमंगी नीलं जानाति नो तु नीलमिति' एवं 'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञीति का भी मल्लवादी ने खण्डन प्रत्यक्ष में विकल्पात्मकता सिद्ध की है।46 बौद्ध मत में प्रत्यक्ष को अनेकार्थजन्य एवं सर्वसामान्य गोचर प्रतिपादित किया गया है।47 मल्लवादी ने इन दोनों को आधार बनाकर लक्षण को अनुपपन्न सिद्ध किया है।48 तार्किक शिरोमणि मल्लवादी ने दिङ्नागीय प्रत्यक्ष निरसन करने हेतु जो तर्क दिए हैं उनका खण्डन किसी भी उत्तरवर्ती बौद्ध दार्शनिक ने नहीं किया है। अकलंक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को स्वलक्षणों में भेद का व्यवस्थापक नहीं मानते हैं तथा इसे अविशद, अनिश्चयात्मक, विसंवादी एवं संव्यवहार के लिए अनुपयोगी सिद्ध करते हैं। विद्यानन्दि, अभयदेवसरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवमूरि आदि दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के विषय को सांश असामान्य विशेषात्मक प्रतिपादित करके भी प्रत्यक्ष को सविकल्पक एवं निश्चयात्मक सिद्ध कया है। जैन दार्शनिकों ने निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का निरसन करते हुए कल्पना की अन्य कोटियाँ प्रस्तुत की हैं, यथा - अस्पष्टाकार प्रतीति, गृहीतग्राहिता, अध्यवसायात्मकता, असत् में वर्तकता, समारोप की अनिषेधकता, संव्यवहारानुपयोगिता, स्वलक्षणाविषयकता, शब्दजन्यता दि। इनका भी खण्डन कर जैनदार्शनिकों ने प्रत्यक्ष में निश्चयात्मकता एवं जात्यादिविशिष्ट वर्य की ग्राहकता रूप में सविकल्पकता सिद्ध की है।49 जैनदार्शनिकों ने बौद्ध प्रत्यक्ष को परमाणु संघात एवं स्वलक्षण समूह से उत्पन्न होने के कारण भी सविकल्पक सिद्ध किया है। जैन दार्शनिक प्रतिपादित करते हैं कि समस्त कल्पनाओं के संहार की अवस्था में भी स्थिर, स्थूल अर्थ का प्रतिभास होता है और वह प्रतिभास शब्द संसर्ग योग्य होता है इसलिए वह भी सविकल्पक ही है।50 स्वलक्षण अर्थ को जैन दार्शनिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष द्वारा स्वलक्षण परमाणुओं का अध्यवसाय नहीं होता, अपितु सामान्यविशेषात्मक अर्थ का अध्यक्साय होता है। वैशेषिकों की भाँति जैनदर्शन में सामान्य एवं विशेष दो भिन्न पदार्थ नहीं हैं, अपितु प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होता है। विहाँ सामान्य विशेष से व्यतिरिक्त नहीं होता तथा विशेष सामान्य से व्यतिरिक्त नहीं होता। । बौद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण की आलोचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनदार्शनिकों के मत में प्रत्यक्ष-प्रमाण विशदात्मक होने के साथ सविकल्पात्मक एवं व्यवसायात्मक होता है तथा वही संवादक एवं अर्थक्रिया में प्रवर्तक भी। बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष व्यवसायात्मक अथवा निश्चयात्मक नहीं होता है, इसलिए उसकी संवादकता और अर्थक्रिया में प्रवर्तकता भी संदिग्ध है। जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष को सविकल्पक मुख्यरूप से उसकी निश्चयात्मकता, अभिलाप संसर्गयोग्यता एवं ज्ञानात्मकता के कारण प्रतिपादित किया है। जो ज्ञान निश्चयात्मक होता है उसका सविकल्पक होना आवश्यक है किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विकल्पात्मक ज्ञान निश्चयात्मक भी हो। एक प्रश्न बौद्ध प्रत्यक्ष की निर्विकल्पकता को लेकर सहज ही उठता है कि एक ओर बौद्ध दार्शनिक प्रमाण को ज्ञानात्मक मानते हैं तो दूसरी ओर प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक स्वीकार करते हैं। ज्ञानात्मकता के साथ निर्विकल्पकता संभव नहीं है। ज्ञान मानसिक प्रत्यय के सिवाय कुछ नहीं है। मानसिक प्रत्यय को यदि विकल्प कहा जाता है तो ऐसा कोई ज्ञानात्मक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता जो विकल्पात्मक नहीं हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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