SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १८८ एक रूप मानते हैं।37 उस एकविध प्रमेय का ज्ञान करने के लिए ही जैन दार्शनिक प्रत्यय स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि अनेक प्रमाणों का निरूपण करते हैं। इस प्रकार जैन दार्शनिक प्रमाण संप्लववादी हैं। प्रत्यक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष-प्रमाण के लक्षण को लेकर जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों में गहरा मत-भेद है। बौद्धदार्शनिक प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक प्रतिपादित करते हैं तो जैनदार्शनिक प्रमाण को निश्चयात्मक स्वीकार करने के कारण सविकल्प सिद्ध करते हैं। दिङ्नाग ने 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम् 38 उद्घोष के साथ प्रतिपादित किया कि नाम, जाति, क्रिया, द्रव्य आदि की योजना रूप कल्पना से रहित ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। दिङ्नाग प्रणीत लक्षण में अभिधर्मकोश व्याख्या के 'चक्षुर्विज्ञानसमंगी नीलं विजानाति नो त नीलमिति तथा 'अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञीति वाक्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धर्मकीर्ति को प्रदिङ्नागय लक्षण अपर्याप्त प्रतीत हुआ अतः उन्होंने 'अभ्रान्त पद का और सन्निवेश पर 'तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम के रूप में तथा लक्षण देकर कल्पना रहित एवं अभ्रान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा। दिङ्नाग नाम, जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य आदि की शब्दयोजना करने को कल्पना मानते है किन्तु धर्मकीर्ति उनसे भी एक चरण आगे बढ़कर अभिलाप अर्थात् वाचक शब्द के संसर्ग योग्य प्रतिभासप्रतीति को ही कल्पना कह देते हैं।41 अभ्रान्त शब्द के सन्निवेश का औचित्य बतलाते हुए धर्मकीर्ति का कथन है कि कभी कोई ज्ञान कल्पना रहित होते हुए भी इन्द्रियविकार के कारण भ्रान्त हो सकता है, उस भ्रान्त ज्ञान का निराकरण करने के लिए अभ्रान्त पद का प्रत्यक्ष-लक्षण में सन्निवेश आवश्यक है।42 धर्मोत्तर ने अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतीति की व्याख्या करते हुए अर्थसन्निधि से निरपेक्ष अनियताकार प्रतिभास को अभिलाफ्संसर्गयोग्य प्रतिपादित किया है तथा विकल्प या कल्पना को अर्थ से अनुत्पन्न कहकर उसका प्रत्यक्ष से व्यावर्तन किया है। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण का विषय स्वलक्षण है। स्वलक्षण अनभिधेय होता है। वह शब्द विविक्त अर्थ होता है। उसमें वाच्यवाचक भाव नहीं होता। वाच्यवाचक भाव का स्वीकार बौद्धों ने सामान्यलक्षण में किया है। किन्तु धर्मोत्तर का मत है कि स्वलक्षण में भी वाच्य वाचक भाव संभव है और उसकी वाच्य-वाचकता को स्वीकार करके ही प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ कहा गया है। स्वलक्षण का इन्द्रिय ज्ञान नियत प्रतिभास वाला होने से अभिलाप के संसर्ग योग्य नहीं होता, अतः निर्विकल्पक होता है।45 जैनदार्शनिकों ने बौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की धज्जियां उडाकर प्रत्यक्ष को सविकल्पक, विशद, अर्थसाक्षात्कारी एवं निश्चयात्मक सिद्ध किया है। चौथी-पाँचवी शती के महान् जैनदार्शनिक मल्लवादी ने दिङ्नाग-प्रणीत प्रत्यक्ष को निरूपणात्मक होने से आलम्बन प्रत्यय के विपरीत प्रतिपत्त्यात्मक होने से, अध्यारोपात्मक होने से, सामान्यरूप विषयात्मक होने से, सत एवं असत दोनों का अभेद ग्राहक होने से सविकल्पक सिद्ध किया है तथा हेत्वन्तर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy