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________________ पुस्तक समीक्षा अपभ्रंश काव्य सौरभ, डॉ. कमलचन्द सोगानी, प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान, 1992, मूल्य सजिल्द रु.125/-, पेपर बैक रू. 75 प्राप्तिस्थान - जैन विद्या संस्थान, श्री महावीरजी (राजस्थान), अपभ्रंशसाहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-3020041 अपभ्रंश, प्राकृत और आधुनिक उत्तर भारतीय भाषाओं के बीच की एक कड़ी है। इसका प्रकाशित, अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके महत्त्व को और जन जीवन में इसके स्थान को स्पष्ट कर देता है। यह हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, बंगला आदि की जननी है फिर भी दुर्भाग्य से इसके अध्ययन की परम्परा धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। यदि इसके अध्ययन की परम्परा लुप्त हो गयी तो भविष्य में ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि इस भाषा को जानने वाला कोई न रहे। प्रो. कमलचन्द सोगाणी निश्चित ही धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होने अपभ्रंश साहित्य एकादमी की स्थापना करके और अपभ्रंश भाषा के अध्ययन को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। प्रस्तुत कृति अपभ्रंश अध्ययन की दिशा में पाठ्य ग्रन्थों की कमी पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। पउमचरिउ, महापुराण, जबूंसामिचरिउ, सुदर्शनचरिउ, करकण्डुचरिउ, धन्नकुमारचरिउ आदि अपभ्रंश के ग्रन्थों से इसकी सामग्री का संकलन किया गया है। संकलन सुन्दर है। साथ ही इनका हिन्दी अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण इसे पूर्णतः एक पाठ्य पुस्तक बना देता है। व्याकरणिक विश्लेषण के माध्यम से अर्थ को स्पष्ट करने की लेखक की शैली विशिष्ट है। उन्होनें पूर्व में भी प्राकृत के कुछ ग्रन्थों का अनुवाद किया है। अपभ्रंश अध्येता उनके श्रम को सार्थक करें, यही अपेक्षा है। यदि इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपभ्रंश व्याकरण जोड़ दिया जाता, तो यह ग्रन्थ अपभ्रंश के अध्ययन के लिए एक सम्पूर्ण ग्रन्थ बन जाता। जैन साधना पद्धति में ध्यानयोग, लेखक - साध्वी प्रियदर्शना जी, प्रकाशक - श्री रत्न जैन पुस्तकालय, आचार्य श्री आनन्दऋषि जी मार्ग, अहमदनगर, डिमाई सोलह पेजी, पृष्ठ सं.590+ 60 % 650, मूल्य रु. 300/ वर्तमान युग में मनुष्य तनावों से त्रस्त है। परिणामतः ध्यान साधना की ओर मानव जाति की रुझान पुनः बढ़ी है। आज न केवल ध्यान की प्राचीन विधियों की पूर्वस्थापना हो रही है, अपितु अनेक नवीन ध्यान विधियों का उद्भव भी हुआ है। प्रस्तुत कृति में जैन साधना पद्धति में ध्यान का क्या स्वरूप रहा है, इसका विस्तृत विवेचन है। प्रस्तुत कृति छः अध्यायों में विभक्त,
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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