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________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९८२ प्रथम अध्याय में मध्यकालीन राजनीति तथा संस्कृति का ऐतिहासिक सर्वेक्षण किय गया है। द्वितीय अध्याय में मध्यकलीन शिल्प के सामान्य तत्वों की समीक्षा की गई है। तृतीय अध्याय सबसे बड़ा है और इसमें विभिन्न क्षेत्रीय कला-शैलियों का विशद विवेचन किया गया है। कतिपय गुप्तोत्तर कालीन केन्द्रों तथा क्षेत्रीय शिल्प-शैलियों में, यथा उत्तर भारत की प्रतिहार एवं पूर्व पाल कलाओं में, महाराष्ट्र के एलोरा और धारपुरी (एलीफैन्टा) केन्द्रों में, तथा दक्षिण भारत की चालुक्य एवं पल्लव शैलियों में कला के उदात्त तत्त्व अक्षुण्ण बने रहे, यद्यपि प्रत्येक विधा की अपनी विशेषता भी कायम रही। पूर्व पाल कला में गुप्त कला की झलक स्पष्ट है और मुखाकृतियां सौम्य हैं। एलोरा और उससे भी अधिक धारपुरी की मूर्तियां अधिकतर विशालकाय एवं अलौकिक गरिमा से मण्डित हैं। पल्लव शैली वेंगी कला की दायाद पुत्री हैं तथा इसकी आकृतियां छरहरी और लयात्मकता में बेजोड़ हैं। चोल कला में पल्लव कला की तरलता तथा एलोरा की भव्यता का अनोखा संगम है जो पाषाण तथा कांस्य मूर्तियों में समान रूप से देखा जा सकता है। पर मध्यकालीन अन्य क्षेत्रीय शैलियों में कला ऊंचे स्तर से गिरने लगती है और कृत्रिमता तथा शिथिलता का शिकार हो जाती है, जो दक्षिण की होयसल शैली में पूर्व की सेन कला में तथा राजस्थान में आबू (देलवाड़ा) के शिल्प में साफ नजर आता है। प्रतिमाशास्त्रीय लक्षणों के उलझन में फँस कर कला अब रीति-प्रधान हो जाती है। गतिशीलता भंगिमाओं में बदल जाती है। अंगयष्टि अलंकार-बाहुल्य से बोझिल हो जाती है तथा कला का तरल प्रवाह शिथिल पड़ जाता है। प्रत्येक मध्यकालीन क्षेत्रीय कला के उद्गम और विकास का अपना इतिहास है। इस ग्रन्थ में उन सभी के तकनीक, विषय-वस्तु तथा विशिष्ट तत्वों का चित्रों और उदाहरणों के सहारे विश्लेषण एवं अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक की भाषा रोचक और सुपाठ्य है। हिन्दी में कला-विषयक पुस्तकों के अभाव के कारण लेखकद्वय ने पारिभाषिक शब्दावली के चयन में काफी परिश्रम और सूझ-बूझ से काम लिया है। फिर भी इसमें कहीं-कहीं कुछ कसर रह गई है, यथा 'स्थिरता एक गुण है पर इसका प्रयोग गतिहीनता (दोष) के बदले हुआ हैं। श्रृंगारात्मकता के स्थान पर 'ऐन्द्रकता का प्रयोग भी अनुपयुक्त है। पर ये छोटे दोष पुस्तक के महत्त्व को कहीं भी प्रभावित नहीं करते हैं। इस विषय का हिन्दी का यह एकमात्र ग्रन्थ है और विश्वविद्यालयों की उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों तथा शोध छात्रों के लिये उपयोगी होने के साथ ही सामान्य पाठकों और भारत कला के जिज्ञासुओं के लिए भी उपादेय एवं ज्ञान-वर्धक है। ग्रंथरत्न के लिए लेखकव्य तथा प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं। - प्रो. कृष्णदेव, 150ए, रवीन्द्रपुरी, न्यू कालोनी, वाराणसी-221003 Jain Educadon International For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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