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भारतीय दर्शन में कर्म की विचित्र गति के सिद्धान्त की मान्यता है । मनुस्मृति में कहा। है " मन, वचन और शरीर के शुभ या अशुभ कर्मफल के कारण मनुष्य की उत्तम, मध्यम व अधम गति होती है ।" विष्णुपुराण में कहा गया है 'हे राजन् ! यह आत्मा न तो देव है, है और न पशु है, न ही वृक्ष मनुष्य ये भेद तो कर्म जन्य शरीर रुपी कृतियों का है। बौह दर्शन आचार्य नागसेन ने मिलिन्द - प्रश्न में बताया है राजन् ! जीवों की विविधता के कारण भी उनका अपना कर्म ही होता है। सभी जीव अपने-अपने कर्मों के फल भोगते हैं। जीव अपने कर्मों के अनुसार नाना गतियों और योनियों में उत्पन्न होते हैं । भगवान् महावीर कहा है गौतम ! संसार के जीवों के कर्म-बीज भिन्न-भिन्न होने के कारण उनकी अवस् या स्थिति में भेद है। यह अकर्म के कारण नही । कर्मरूपी बीज के कारण ही संसारी जीवो अनेक उपाधियाँ, विभिन्न अवस्थाएं दिखायी देती हैं। कर्म की इस विचित्रता की मनोवैज्ञानि सिद्धान्त 'भिन्नता का नियम' (Law of Variation) से तुलना की गई है। वंशानुक्रमीय (Heredity traits) के वाहक बीजकोष (Carn Plasm ) हुआ करते हैं। ये बीज अने रेशों से बने होते हैं । इन रेशों को अंग्रेजी में क्रोमोजोम्स (cromosomes ) कहते हैं।
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श्रमण, जुलाई-सितम्बर,
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एक बीज - कोष में अनेक वंशसूत्र पाये जाते हैं। इन वंशसूत्रों के और भी अनेक सूक्ष्म भाग होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में जीन्स कहते हैं। वास्तव में ये जीन्स ही विभिन्न गुण-दोषों के वाहन होते हैं। जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक भ्रूण-कोष में 23 पिता के तथा 23 माता के वंशस्ये का समागम होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनके संयोग से 16, 77 एवं 216 प्रकार की विभिन्न संभावनाएं अपेक्षित हैं। अभी तक विज्ञान केवल जीन्स तक ही पहुंच पाया। जीन इस स्थूल शरीर का ही घटक है किन्तु कर्म सूक्ष्म शरीर है, वह सूक्ष्म है। इससे सूक्ष्म कर्मशरीर, वह सूक्ष्मतम है। इसके एक-एक स्कन्ध पर अनन्त - अनन्त लिपियां लिखी हुई हैं। हमारे पुरुषार्थ का, अच्छाइयों एवं बुराइयों का न्यूनताओं और विशेषताओं का साथ लेखा-जोखा और सारी प्रतिक्रियाएं कर्मशरीर में अंकित हैं। वहां जैसे स्पन्दन आने लग जाते हैं, आदमी वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है। महाप्रज्ञ जी लिखते हैं कि एक दिन यह तब भी प्रकाश में आ जायेगा कि जीन केवल माता-पिता के गुणों या संस्कारों का ही संवहन नहीं करते, किन्तु ये हमारे किए हुए कर्मों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।
अतः उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष है कि अब जीन्स बनाम कर्म शोध का एक महत्त्वपूर्ण विषय है ।
द्वितीय अध्ययन में जैन कर्मसिद्धान्त की विशेषताओं का अध्ययन किया गया है। जीव व पुद्गल का अनादि सम्बन्ध है। जीव जीता है - प्राण धारण करता है, अतः जीव है। जीव सामान्य कर्मयुक्त आत्मा से कर्ममुक्त - आत्मा अर्थात् परमात्मा कैसे बन सकता है। सार्वयौनिकता के सिद्धान्त के अन्तर्गत 84 लाख योनि के जीवों में से किसी भी योनि का जीव किसी भी अन्य योनि में जाकर उत्पन्न हो सकता है 1
समस्त देहधारियों की आत्मा के साथ अनन्त काल से पुद्गल - निर्मित शरीर है। किसी भी शरीर में जब तक आत्मा रहती है, तभी तक वह शरीर या पुद्गल (कर्मवर्गणा के पुद्गल) काम करता है।
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