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________________ 60 भ्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९६२ यही कारण था कि भारतीय दर्शन परम्परा के इतिहास में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की रचना सर्वप्रथम जैन परम्परा में ही हुई। जैन दार्शनिकों में आ. सिद्धसेन दिवाकर (4शती) प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सन्मति - प्रकरण में विभिन्न दार्शनिक मतों को समीक्षित और समन्वित करने का प्रयास किया । यद्यपि आ. सिद्धसेन के समकालीन बौद्ध दार्शनिकों ने भी विभिन्न दार्शनिक मतवादों की समीक्षा की थी किन्तु उन्होने मात्र उनमें दोषों की उद्भावना कर उन्हें निरस्त करने का ही प्रयास किया, जब कि आचार्य सिद्धसेन ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषणा की कि जब तक प्रत्येक दर्शन (नय) पृथक्-पृथक् होता है तब तक वह अपनी ही सत्यता के मिथ्या अभिनिवेश के कारण ही मिथ्या रहता है, किन्तु जब वह अनैकान्तिक और अनाग्रही दृष्टि को स्वीकार कर एक दूसरे की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उनमें सामंजस्य स्थापित करता है, तो वह सम्यक् बन जाता है। इसी क्रम में उन्होंने आगे यह बताया था कि सांख्य दर्शन द्रव्यार्थिक नय को प्रधान मानकर और सौगत दर्शन पर्यायार्थिक नय को प्रधान मानकर अपनी विवेचना प्रस्तुत करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में उक्त दोनों नयों को अपेक्षा भेद से और विषयभेद के आधार पर प्रधानता दी जाती है। यही कारण है कि इस प्रकार से समन्वय की दृष्टि को लेकर आ. सिद्धसेन दिवाकर ने जिस परम्परा को प्रस्तुत किया था, हमारे आलोच्य ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में मल्लवादी क्षमाश्रमण (5वीं शती) के द्वारा उसी को संपोषित किया गया । प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकार के वैशिष्ट्य को स्थापित करते हुए जैन विद्या के मूर्धन्य विज्ञान पं. दलसुखभाई मालवणिया ने लिखा है कि "भगवान महावीर के बाद भारतीय चिन्तन में तात्त्विक दर्शनों की बाढ़ आ गई थी। सामान्यतया यह कह देना कि सभी नयों (दर्शनों ), मन्तव्यों, मतवादों का समूह अनेकान्तवाद है, यह एक बात है, किन्तु उन मंतव्यों को विशेष रूप से विचार पूर्वक अनेकान्तवाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्थापित करना यह दूसरी बात है। यह महत्त्वपूर्ण कार्य यदि किसी जैन दार्शनिक ने किया तो उनमें प्रथम नाम आ. मल्लवादी क्षमाश्रमण का है" । ग्रन्थ और ग्रन्थकार की इसी विशेषता को दृष्टि में रखकर हमने इस ग्रन्थ को अपनी गवेषणा का विषय बनाया । आ. मल्लवादी क्षमाश्रमण ने ब्रदशार नयचक्र में अपने अनुपम दार्शनिक पांडित्य का परिचय तो दिया ही है किन्तु उनके साथ-साथ उन्होंने भारतीय दार्शनिक इतिहास की एक अपूर्व सामग्री को आगामी पीढ़ी के लिए छोड़ा भी है। किन्तु भारतीय दर्शन का यह दुर्भाग्य था कि आ. मल्लवादी का यह महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ कालक्रम में नष्ट हो गया, मात्र उसकी आ. सिंहसूरि की एक टीका ही उपलब्ध हो सकी। किन्तु उस टीका में ग्रन्थ के कुछ अंश ही उपलब्ध थे, सम्पूर्ण ग्रन्थ उस टीका ग्रन्थ में भी उपलब्ध नहीं था । अतः उस टीका के आधार पर भी मूल ग्रन्थ को पुनः व्यवस्थित करना एक दुरूह कार्य था । पू. मुनि जम्बूविजय जी ने इस दुरूह कार्य को हाथ में लिया और तिब्बती भाषा में अनुदित प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में प्रस्तुत ग्रन्थ के जो-जो अंश उपलब्ध हो सके उनका अध्ययन करके, इस ग्रन्थ को व्यवस्थित किया । इस ग्रन्थ में अनेक लुप्त ग्रिंथों के उद्धरण एवं लुप्तवादों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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