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________________ जैन-धर्म और दर्शन की प्रासंगिकता - वर्तमान परिप्रेक्ष्य में डॉ. इन्दु जैन-धर्म और दर्शन की वर्तमान समय में क्या प्रासंगिकता है ? इस सन्दर्भ में यह अवधेय कि हमारे देश में धर्म और दर्शन अवियोज्य रीति से जुड़े हुए हैं, क्योंकि हमारे यहाँ दर्शन मात्र बुद्धि विलास न होकर जीने की वस्तु रहा है, व्यवहार की वस्तु रहा है, जीवन के रहस्यों ढूँढ़ने और उन्हें सुलझाने का माध्यम रहा है। भारतीय दर्शन की उत्पत्ति ही दुःख से मानी है और दुःखों से छुटकारा पाना ही इसका एक मात्र लक्ष्य रहा है । समस्तं भारतीय दर्शनों दुःखों से छुटकारा पाने के भले ही अलग-अलग मार्ग ढूँढ़े गये हों, पर इस बात से तो सभी सहमत हैं कि दुःखों का कारण हमारी वासना है, इच्छा है, तृष्णा है, आसक्ति है। अतः जैन-धर्म भी इसका अपवाद नही है । - मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज का अनिवार्य अंग है। व्यक्ति और समाज परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। ऐसी परिस्थिति में यह अनिवार्य है कि व्यक्ति और समाज दोनों ही एक दूसरे के लिए अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें। चूँकि समाज व्यक्तियों का समूह है और इसका निर्माण व्यक्ति के परस्पर सहयोग एवं सुरक्षा की अपेक्षा से व्यक्ति द्वारा हुआ है, अतः शब्दों में हमें यह कहना चाहिए कि व्यक्ति को स्वकर्तव्यों का पालन विवेकपूर्वक करना हिए। सामान्यतया जैन दर्शन के निवृत्तिमूलक होने के फलस्वरूप यह प्रतीत होता है कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में हमारे समक्ष या राष्ट्र या विश्व के लिए इसकी सार्थकता नहीं है, पर विवेकपूर्वक विचार करने पर यह भ्रान्त धारणा ही सिद्ध होती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार "ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी सेवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण दिशा में होना चाहिए । महावीर और बुद्ध का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान प्रप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोक-मंगल के लिए कार्य करते रहे । यद्यपि इन निवृत्ति प्रधान र्शनों में जो सामाजिक सन्दर्भ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं, इनसे मूलतः सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से इनमें सामाजिक रचना एवं सामाजिक दायित्वों के निर्वहण की अपेक्षा सामाजिक जीवन को भूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गया है।"1 जैन, बौद्ध और गीता का समाज-दर्शन, डॉ. सागरमल जैन, प्र.- प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर (राजस्थान ), 1982, पृ. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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