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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
हैं । पुनः प्रज्ञापना जैसे विकसित आगम में गुणस्थान सिद्धान्त के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास की इन १० गुणश्रेणियों की चर्चा का अभाव है । प्रज्ञापना का रचनाकाल विद्वानों ने ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना है अतः हमें यह मानना होगा कि नियुक्तियाँ ई० सन् की द्वितीय शताब्दी से लेकर तृतीय शताब्दी के पूर्व निर्मित हुई हैं अतः उन्हें आर्यभद्र की रचना मानकर ई० सन् की द्वितीय शताब्दी के प्रथम चरण में रखना अनुपयुक्त नहीं होगा ।
यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति की प्रतिक्रमण नियुक्ति में गाथा सं० १२८७ के पश्चात् की दो गाथाओं में चौदसभूतगामेहिं के बाद १४ गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है लेकिन ये दोनों गाथाएँ जिनमें १४ गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है, प्रक्षिप्त हैं और इनकी गणना आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं में नहीं की जाती है । आवश्यक नियुक्ति की आठवीं शताब्दी की हरिभद्र की टीका में इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में नहीं माना गया है । अपितु जीव समास की चर्चा के प्रसंग में इन्हें किसी संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया गया है। अतः यह सुस्पष्ट है कि नियुक्ति साहित्य में १४ गुणस्थान की अवधारणा पूर्णतया अनुपस्थित है और उनमें तत्त्वार्थ के समान ही दस ही गुणश्रेणियों की चर्चा है ।
जैसा कि हमने संकेत किया है कि आचारांगनियुक्ति में उपलब्ध कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की चर्चा करने वाली ये गाथाएँ नियुक्तिकार की न होकर कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी पूर्व साहित्य के किसी ग्रन्थ से ली गई हैं । यद्यपि यह नियुक्ति गाथा के रूप में मान्य है । जिस प्रकार ये गाथाएँ षट्खंडागम के वेदना खंड की चूलिका में अवतरित की गईं और वहीं से आगे धवला टीका और गोम्मटसार में भी गई हैं उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी, किसी प्राचीन ग्रंथ का अंश होकर वहाँ से नियुक्तियों में और कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी प्राचीन और अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में तथा पंचसंग्रह में ये गाथायें अवतरित की जाती रहीं १. देखें
आवश्यक नियुक्ति (हरिभद्रीय टीका ) भाग २ पृ० १०७
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