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श्रमण, अप्रैल-जून १९२ में अन्तर यह है कि श्रावक उस सामायिक को एक नियतकाल से नियतकाल तक धारणकर अभ्यास करता है इसलिए श्रावक को उस सामायिक को व्रत या प्रतिमा कहते हैं, परन्तु श्रमण का जीवन ही समतामय बन जाता है, इसलिए उसकी सार्वकालिक समता को सामायिक चारित्र कहते हैं। रत्नकरण्डक में लिखा है- मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक की हुई मर्यादा के अन्दर या बाहर भी किसी नियतसमयपर्यन्त पाँचों पापों का त्याग करना सामायिक व्रत कहलाता है। साधक धीरे-धीरे समभाव का अभ्यास करते-करते अपने पूर्ण जीवन को समतामय बना लेता है और सामायिक करता हुआ श्रावक भी संयमी श्रमण के समान हो जाता है। इस तरह सामायिक महाव्रतों की ओर अग्रसर होने का कारण बनता है। ____सामायिकव्रत के काययोगदुष्प्रणिधान, वचनयोगदुष्प्रणिधान, मनोयोग दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान, पाँच अतिचार बताए गये हैं। अतः सामायिक व्रत के परिपूर्ण पालनार्थ इन दोषों से बचना आवश्यक है । शरीर से सावधपापयुक्त क्रिया करना काय दुष्प्रणिधान कहलाता है । वाणी से सावध वचन बोलना वाग्दुष्प्रणिधान है । मन से सावध भावों का चिन्तन मनोदुष्प्रणिधान है। यथासमय सामायिक न करना, समय से पूर्व ही सामायिक से उठना, अनादर या अनवस्थितकरण कहा गया है और सामायिक विषयक विस्मरण स्मृत्यनुपस्थान या स्मृत्यकरण कहलाता है, जैसे, सामायिक करनी है या नहीं। सामायिक की है या नहीं, सामायिक पूर्ण हुआ है या नहीं इत्यादि । ३ प्रोषधोयवासव्रत
प्रोषध का अर्थ पर्व है। पर्व के दिन जो उपवास किया जाता है, उसे प्रोषधोपवास कहते हैं अथवा विशेष नियमपूर्वक उपवास करना १. आसमयमुक्तिमुक्त पञ्चाधानामशेष भावेन ।
सर्वत्र च सामायिका: सामायिकं नाम शंसन्ति । र० क० श्रा० ९७ २. सामाइसि दु कदे समणो इर सावओ हवदि जह्मा ।
म० आ० ५३१, र० क० श्रा० १०२, स० सि०७।२१ ३. त० सू०, ७१३३, उवासग० १।४०, र० क० श्रा० १०५, साध० ५।३३
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