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________________ प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार ५७ स्वीकृत व्रत अणुव्रत कहलाते हैं और साधक को अणुव्रती, देशविरत या देशसंयमी कहा जाता है ।" अणुव्रत श्रावक के प्रमुख गुण हैं । जैसे पाँच महाव्रतों के अभाव में श्रामण्य निर्जीव होता है उसी तरह पाँच अणुव्रतों के अभाव में श्रावक धर्म निष्प्राण होता है । उवासगदसाओ व्रतों का विवरण स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसन्तोष और इच्छापरिमाण के रूप में मिलता है । कुन्दकुन्द ने कहा है-स्थूल त्रसकाय जीवों की हिंसा, स्थूल मृषा, स्थूल अदत्तग्रहण एवं परस्त्री का त्याग तथा बहुत आरम्भ परिग्रह का परिमाण अणुव्रत कहलाता है । श्रावक के व्रत अणु अर्थात् अल्प होते हैं । चारित्र मोहनीय कर्म के कारण वह हिंसादि पापों का सर्वाङ्ग त्याग नहीं कर सकता । वह सजीवों की हिंसा का ही त्यागी होता है, इसलिए उसके अहिंसाणुव्रत होता है । स्नेह और मोहादिक के वश से गृहविनाश और ग्रामविनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त होता है, अतः उसके सत्याणु व्रत होता है। बिना दी हुई वस्तु को लेने से उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए अचौर्याणुव्रत होता है । स्वीकार की गई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग करने से रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्री त्याग अणुव्रत होता है । धन, धान्य, क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, अतः उसके परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है । * शीलव्रत अहिंसा आदि व्रत हैं और इनके पालन करने के का त्याग करना शील है । दूसरे शब्दों में, व्रतों की कहते हैं । जिस प्रकार नगर की 1 १. देश सर्वतो . णुमहती । त० मु० ७१२ २. उवासग० १।२४-८ ३. थूलेतसकायवहे लेमोसे अदत्त थले य । लिए क्रोधादिक रक्षा को शील परिखा द्वारा रक्षा की जाती है, उसी परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं || चा. पा. २४; बसु. श्री. २०८, भ. आ० २०८० र. क. श्रा. ५६ ४ स.सि., त. वा. ७।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525010
Book TitleSramana 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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