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________________ जैन दर्शन में शब्दार्थ-सम्बन्ध ३७ में भी वर्तमान-व्यवहार होता है । औपचारिक कथन इसी नय की दृष्टि से सत्य है। क्रियमाण (भविष्यत् क्रिया) को कृत (हो चुकी क्रिया) कहना भी इसी नय से सम्भव है। क्योंकि वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई है उसे इस नय की दृष्टि से पूर्ण माना जाता है। जैसे--डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र को भावि लक्ष्य की दृष्टि से वर्तमान में डाक्टर कहना। 'आज कृष्ण जन्माष्टमी है' ऐसा वर्तमानकालिक व्यवहार भूतकालीन घटना का औपचारिक प्रयोग है। अभी पूरा भोजन नहीं बना परन्तु कहना 'भोजन बन गया' क्रियमाण को कृत कहना है। इसमें कुछ कार्य हो चुका है और कुछ होना बाकी है। भात पक गया (चावल का पकना), आटा पिसाना (गेहूँ पिसाना) आदि प्रयोग इसी नय की सीमा में आते हैं। (२) संग्रहनय--व्यष्टि (विशेष या भेद) को गौण करके समष्टि (सामान्य या अभेद) का कथन करना या ज्ञान होना संग्रहनय है। अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का एक ही रूप से कथन करना या वैसा ज्ञान होना। जैसे--'जीव' शब्द से सभी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियों को एक कोटि में रखा जाता है । 'भारतीय' कहने से स्त्री, पुरुष, बाल, युवा, गरीब, अमीर आदि सभी भारतवासियों का बोध होता है। (३) व्यवहार नय--समष्टि को गौण करके व्यष्टि का कथन या ज्ञान व्यवहार नय है। इसमें संग्रह नय से गहीत पदार्थों का अन्त तक विधिपूर्वक भेद करते जाते हैं । जैसे, 'जीव' के दो भेद-संसारी और मुक्त। संसारी के ४ भेद-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकी। 'भारतीय' के अन्य भेद--उत्तरप्रान्तीय, दक्षिणप्रान्तीय आदि)। (४) ऋजसूत्र नय--भूत और भावि पर्यायों को छोड़कर वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला वचन या ज्ञान ऋजुसूत्र नय है। यद्यपि एक पर्याय एक समय तक ही रहती है (क्योंकि वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। इस सिद्धान्त से) परन्तु व्यवहार से स्थूल पर्याय का ग्रहण करना । जैसे जन्म से मृत्यु तक एक मनुष्य पर्याय मानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525010
Book TitleSramana 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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