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स्याद्वाद एव शून्यवाद विभिन्नता पायी जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ' का अभिमत है कि यह एक युग था जो अद्भुत् अनियमितताओं एवं पारस्परिक विरोधों से भरपूर था।............. तन्त्र-मन्त्र एवं विज्ञान, संशयवाद एवं अंधविश्वास, स्वच्छन्द जीवन एवं तपस्या साथ-साथ एक दूसरे से मिले-जुले पाये जाते हैं ।
मतभेदों में समन्वय का प्रयास -परस्पर मतभेद एवं वैमत्य के परिवेश में जैन दर्शन ने स्याद्वाद के माध्यम से एवं बौद्ध दर्शन के शून्यवाद के द्वारा यह प्रतिपादित किया कि किसी सिद्धांत के किञ्चित् अंश के सत्य या असत्य होने से पूरे वाद या सिद्धान्त को सत्य या असत्य मानकर खण्डित कर देना उचित नहीं है। न तो कोई विचार पूर्णतया मिथ्या है और न ही कोई पूर्णतया सत्य । समस्त सिद्धांत एकांश रूप से ही गलत या सही हो सकते हैं। परन्तु इसके विपरीत अधिकांश वादों ने एकांतवादी दृष्टि अपनायी। फलतः वे अपने मत को ही पूर्णतया सत्य एवं दूसरों के मत को पूर्णतया मिथ्या मानते रहे। स्याद्वादियों एवं शून्यवादियों-दोनों ने ही 'तत्त्व' के प्रति अनेकांतवादी विचारधारा अपनायी। इन दोनों ने यह सिद्धांत अपनाया कि सभी वादों में कुछ सत्यांश विद्यमान हैं, इसी प्रकार मिथ्या का अंश भी विद्यमान है। इन दोनों ही विचारकों ने न तो किसी एक विशिष्ट सिद्धांत का पूर्णतया खण्डन ही किया और न किसी एक का पूर्णतया मण्डन ही किया। अपितु उन्होंने तो उन पूर्व विचारों को ही जो-जो यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे, उनका संग्रह करके उनमें उचित संशोधन करके एक नवीन रूप दे दिया।
उल्लेखनीय है कि शून्यवादियों ने समन्वय हेतु तत्त्व के प्रति "निषेधात्मक" दृष्टिकोण अपनाया जबकि स्याद्वादियों ने 'विधेयात्मक दृष्टि को अंगीकार किया। शून्यवादियों के मतानुसार 'तत्त्व' सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है और सत्-असत् उभय रूप भी नहीं है और सत्-असत् अनुभय रूप भी नहीं है। दूसरे शब्दों में शून्यवादियों की दृष्टि में तत्त्व चतुष्कोटि विनिमुक्त अर्थात् 'शून्य' है। इसके विपरीत स्याद्वादियों ने विधेयात्मक दृष्टि अपनाते हुए यह १. डॉ० राधाकृष्णन्, एस. भारतीय दर्शन (भाग १) १० १२८
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