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________________ पर्यावरण और अहिंसा ८७ करता है वे मन, वचन और कर्म से सम्पन्न होती हैं। यहाँ कर्म का अर्थ शरीर के अंग के संचालन से भी है। इस प्रकार भाव हिंसा का जन्म होता है। मनुष्य की भाव हिंसा उसे द्रव्य हिंसा के लिए प्रेरित करती है । अतः सर्वप्रथम भाव हिंसा को मिटाना आवश्यक है। जब तक व्यक्ति हिंसा को उचित मानता है तब तक भाव हिंसा की स्थिति में रहता है। अहिंसा के लिए द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार की हिंसा से मुक्त होना अनिवार्य है। अहिंसा का महाव्रत धारण करना कठिन हो सकता है परन्तु अहिंसा के अणुव्रत को धारण करने में कोई कठिनाई नहीं है । मन, वचन एवं कर्म से हिंसा का परित्याग करना मानव के लिए अप्राकृतिक नहीं है। उसका विवेक एवं ज्ञान उसके लिए पर्याप्त है । हिंसा का भाव उदय होने पर मानव को उसका ज्ञान होता है। इसी प्रकार अहिंसा की श्रेष्ठता से भी वह परिचित होता है। अहिंसा का दर्शन प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। जैन दर्शन पुद्गल मात्र के लिए अहिंसा को अनिवार्य मानता है। भगवान् महावीर कहते हैं कि सम्यक् दर्शन, सम्यक चारित्र, सम्यक् ज्ञान में सम्यक् शब्द अहिंसा को ही इंगित करता है। मानव का दर्शन, चारित्र, कर्म, भोजन इत्यादि सभी सम्यक् होने चाहिए, अहिंसक होने चाहिए। आज मानव ने भौतिक विकास और समृद्धि से जीवन को नया आयाम दे डाला है। वैज्ञानिक प्रयासों ने समाज को नए-नए साधन दिये हैं। इन साधनों एवं मानवीय ऊर्जा का अनियंत्रित अतिरेक एवं असम्यक् प्रयोग हुआ है। यह जानकर दुख होता है कि अपनी विक. सित अवस्था में भी मानव हिंसा को छोड़ नहीं पा रहा है । आज मात्र प्राणी विज्ञान के विद्यार्थियों को शिक्षित करने के लिए प्रति वर्ष १५० लाख से अधिक प्राणियों की हत्या कर दी जाती हैं। जंगल तेजी से कट रहे हैं। नदी, भूमि एवं सागरीय जल दूषित होते जा रहे हैं। ध्वनि, वायु एवं अन्तरिक्ष में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। मानव ने कूड़े को अन्तरिक्ष तक पहुंचा दिया है। शोषण तथा प्रकृति के दोहन का यह कृत्य इतना भयानक है कि विकासशील देश का एक व्यक्ति तीन वर्षों में जितना भोजन करता है उससे कहीं अधिक खाद्य सामग्री और सम्बन्धित उत्पादों का कचरा प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति, विकसित देशों का उत्पाद है। अमेरिका जैसे विकसित देश में प्रति व्यक्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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