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________________ ७२ श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२ चरित्र से बनता है जो अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है, शीलप्रेक्षी है, सत्यप्रेक्षी है तथा जो समस्त प्राणियों के प्रति करुणाशील है और जिसकी आत्मा विशुद्ध है उसे ब्राह्मण ही कहा जाना चाहिये।' इसप्रकार ऋषिभाषित ब्राह्मण की व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से करता है। ऋषिभाषित और पुरुषार्थ चतुष्टय ___ ऋषिभाषित में हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों ही पुरुषार्थों का उल्लेख मिलता है। किन्तु श्रमण परम्परा का ग्रन्थ होने के कारण इसमें पुरुषार्थ चतुष्टय में से धर्म और मोक्ष को ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह स्पष्ट है कि उसमें अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों को महत्त्व नहीं दिया गया है। न तो वह काम के सेवन को उचित मानता है और न अर्थ के सञ्चय एवं महत्त्व को ही स्वीकार करता है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कामरूपी मृषामुखी कैंची, यद्यपि सामान्य दृष्टि से सुख का अनुसरण करती हुई प्रतीत होती है किन्तु यह शीघ्र ही व्यक्ति की सुख और शान्ति का छेदन कर देती है। जिस प्रकार मगर से युक्त सरोवर, विष-मिश्रित नारी और सामिष नदी सुख कारक प्रतीत होते हुए भी अन्ततः दुःखदायी ही होती है, उसी तरह भोगाकांक्षा और वासना की पूर्ति सुखद प्रतीत होते हुए भी मूलतः दुःखद ही होती है। ऋषिभाषितकार का यह स्पष्ट निर्देश है कि कामभोगों के सेवन से चाहे बाह्य रूप से सुख मिलता हो किन्तु वे आध्यात्मिक समाधि और शान्ति का भंग ही करते हैं। इसी प्रकार अर्थ के सम्बन्ध में भी ऋषिभाषित का दृष्टिकोण प्रशस्त नहीं है। उसमें कहा गया है कि बन्धन सोने का हो या लोहे का, वह दुःख का ही कारण होता है। बहुमूल्य वाले दण्ड से मारने पर पीड़ा तो होती ही है।४ ऋषिभाषित के अड़तीसवें अध्ययन में १. इसिभासियाइ २६-६ २. वही, ३६-१२ ३. वही, ४५-४४,४६ ४. वही, ४५-५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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