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ऋषिभाषित का सामाजिक दर्शन
साध्वी (डा०) प्रमोद कुमारी भारतीय दार्शनिक चिन्तन का विकास औपनिषदिक, जैन और बौद्ध परम्पराओं से ही हुआ। जैनधर्म के प्रारम्भिक चिन्तन का रूप हमें उसके आगम साहित्य में मिलता है। आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि ग्रन्थ आते हैं। ऋषिभाषित जैन परम्परा में मान्य तो रहा किन्तु इसमें जैन परम्परा के साथ-साथ औपनिषदिक एवं बौद्ध परम्पराओं के ऋषियों के विचार भी संकलित होने के कारण इसके अध्ययन की उपेक्षा होती रही।
यद्यपि ऋषिभाषित में ज्ञान-मीमांसा, तत्त्वमीमांसा और नीतिशास्त्र सम्बन्धी तथ्यों का ही प्रमुखता से उल्लेख है किन्तु बीज रूप में कहीं-कहीं सामाजिक चिन्तन के भी तत्त्व पाये जाते हैं। प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं तथ्यों के विश्लेषण का एक संक्षिप्त प्रयास, तन्निहित निम्नलिखित बिन्दुओं को आधार मानकर किया गया है
() वर्ण व्यवस्था एवं पुरुषार्थ चतुष्टय (ii) व्यक्ति के सुधार से समाज का सुधार (iii) सामाजिक और वैयक्तिक जीवन का द्वैत (iv) स्त्री-पुरुष सम्बन्ध
(v) पारिवारिक सम्बन्ध । ऋषिभाषित और वर्ण-व्यवस्था
वैदिक साहित्य में जहाँ चार वर्णों की कल्पना परमपुरुष के बार अंगों के रूप में की गयी है; उसके विपरीत श्रमण परम्पराओं में पहले आर्य और अनार्य ऐसे ही दो प्रकार के वर्ग मिलते हैं। ऋषिभाषित में भी आर्यायण नामक उन्नीसवें अध्याय में आर्य और अनार्य की यह
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