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श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२
गुण-धर्म बताये हैं । इससे
करने वाला ।' इस प्रकार यहाँ अग्नि के स्पष्ट होता है कि यहाँ अग्नि से तात्पर्य धर्मोपदेशक पंडित है । आचार्य सांकलेश्वर ने परमेष्ठी को 'परम श्रेष्ठ स्थान में रहने वाला अग्नि' बताया है ।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जो परम-पद में स्थित है, उसे परमेष्ठी कहा है । जो परम पद में स्थित होता है, स्वाभाविक है वह पूज्य, आदरणीय, वंदनीय होता ही है ।
चतुर्थ कांड में परमेष्ठी पद को प्रजापति अर्थ में समाहित करते हुए कथन है - इन्द्र ही अग्नि, परमेष्ठी, प्रजापति, और विराट् है । वही सब मनुष्यों और प्राणियों में व्याप्त है, वही सर्वत्र है और वही सबको बल देता है । सायणाचार्य इसका विश्लेषण करते हैं कि 'परमेष्ठी परमे सत्यलोके स्थितः प्रजापतिः विराट् ", अर्थात् जो परम सत्य लोक में स्थित प्रजापति विराट है, वही परमेष्ठी है । आचार्य सातवलेकर का कथन है कि 'प्रभु ही अपने रूप से अग्नि बना है । वही परमेष्ठी (परमात्मा ) प्रजापति (प्रजा का पालन करने वाला ईश्वर है । सब विश्व को उठाने के कारण विराट् हुआ है । वही सब नरों में व्यापता है । वही अग्नि आदि में फैला है । वही रथ खींचने वाले प्राणियों में फैला है । वही दृढ़ करता है और वही धारण करता है ।
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आचार्य सांकलेश्वर ने प्रजापति और परमेष्ठी से धारण करने वाला इन्द्र स्वीकार किया है । "
अष्टम कांड में अथर्ववेद में उल्लेख है - 'देव, इन्द्र, विष्णु, सविता, रुद्रो, प्रजापति, परमेष्ठी, विराट् वैश्वानर वगैरह सभी ऋषियों ने
१. अथर्थवेद सात० भाष्य १-७-२
२. चही
३. अथर्ववेद संहिता विधि भाषा भाष्य ९-७-२
४. इन्द्रो रूपेणाग्निर्वहेन प्रजापतिः परमेष्ठी विराट् विश्वानरे अक्रमत् ।
अथर्व ० १० ४-११-७
५. अथर्व सायण० भाष्य ४-११-७
अथर्व ० सातबले० भा० ४-११-७
अथवं ० वि० भाषा० भा० ४-११-७
६.
७.
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