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________________ श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा में 'परमेष्ठी' पद वैदिक संदर्भ में प्रयुक्त परमेष्ठी__ अध्यात्म और सृष्टि विद्या का अक्षय भंडार होने से हिन्दू संस्कृति में वेदों को अत्यधिक महत्त्व दिया है। स्व-स्वरूप को पहचान कर परम-पद की स्थिति को किस प्रकार प्राप्त करके जीवन सफल बनाया जाय, यह वेदों में सुन्दर रीति से प्रतिपादित है। ___ अथर्ववेद के अन्तर्गत 'परमेष्ठी' पद का उल्लेख अनेकशः किया गया है। वेदों को सायणाचार्य, सातवलेकर तथा सांकलेश्वर की व्याख्याओं ने बोधगम्य और सुस्पष्ट कर दिया है। यहाँ समन्वित रूप से परमेष्ठी पद की व्याख्या का निरूपण करेंगे। प्रथम कांड के अन्तर्गत 'धर्मप्रचार' सूक्त में परमेष्ठी पद का निर्देश है कि 'हे परमेष्ठी ! (श्रेष्ठ स्थान में रहने वाले) ज्ञान को प्राप्त करने वाले अग्ने ! तू तोले हुए घी आदि का भोजन कर और दुष्टों को विलाप करा।' यहाँ सायणाचार्य 'परमेष्ठी' की व्याख्या करते हैं'उत्कृष्टस्थाने तिष्ठतीति परमेष्ठी। स्वर्गाद्युत्कृष्ट स्थान निवासिन् । तिष्ठते औणादिकः किनिप्रत्ययः ।२ सायणाचार्य का अभिप्राय है कि जो स्वर्गादिक उत्कृष्ट स्थान में स्थित है, वह परमेष्ठी है। सातवलेकर इसकी व्याख्या अन्य रीति से करते हैं-'परमे पदे स्थाता' इति परमेष्ठी । परम श्रेष्ठ अवस्था में रहने वाले, शरीर को वश में रखने वाले, ज्ञानी धर्मोपदेशक ।' __वास्तव में यह सूक्त अग्नि सूक्त है। इस सूक्त में अग्नि पद से किसका ग्रहण करना चाहिए ? इसका निश्चय कराने वाले ये शब्द इस सूक्त में हैं-जातवेदः, परमेष्ठिन्, तनूवशिन्, नृचक्षः, वन्दितः, इतः, देवः, अग्नि । इसमें परमेष्ठी पद का खुलासा करते हैं, परम पद में ठहरने वाला अर्थात् समाधि की अंतिम अवस्था को जो प्राप्त हैं, आत्मानुभव जिसने प्राप्त किया है, तुर्य-चतुर्थ अवस्था का अनुभव - १. आज्यस्य परमेष्ठिन् जातवेदस्तनूवशिन् । अथवं० १-७-२ - २. अथर्व० सायण भाष्य १-७-२ । ३. अथर्व० सात भाष्य १-७-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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