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________________ चन्द्र कवेध्यक ५३ बुद्धिमान् पुरुष के लिए कहा गया है कि वह गुरु के समक्ष सर्वप्रथम अपनी आलोचना और आत्म-निंदा करे, तत्पश्चात् गुरु जो प्रायश्चित्त दे, उसकी स्वीकृति रूप 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ से गुरु को वन्दन करे और गुरु को कहे कि आपने मुझे निस्तारित किया। आसक्ति त्याग पर बल देते हुए कहा है कि मृत्यु समय में सोनाचाँदी, दास-दासी, धन-वैभव यहाँ तक कि परिजन आदि कुछ भी मनुष्य के सहायक नहीं होते । आत्म-समाधि की अपेक्षा ये सभी तुच्छ हैं । समाधिमरण के इच्छुक व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं के प्रति किसी तरह की आसक्ति नहीं रखते हैं, वे इस हेतु अपने शरीर के मोह का भी त्याग कर देते हैं। ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया गया है कि विनयगुण, आचार्य गुण, शिष्य गुण, विनय-निग्रह गुण, ज्ञान गुण, चारित्र गुण और मरण गुण विधि को सुनकर उन्हें उसी प्रकार धारण करें, जिस प्रकार वे शास्त्र में प्रतिपादित हैं। इस प्रकार की साधना से गर्भवास में निवास करने वाले जीवों के जन्म-मरण, पुनर्भव, दुर्गति और संसार में गमनागमन समाप्त हो जाते हैं । [प्रस्तुत लेख आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा प्रकाशित चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक ग्रन्थ की भूमिका को आधार बनाकर लिखा गया है । ग्रन्थ की भूमिका लेखक ने पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी के निदेशक प्रो. सागरमल जैन के सहयोग से लिखी है, अतः लेखक उनके प्रति आभारी है] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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