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बन्द्र कवेध्यक
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ज्ञान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि इस लोक में अत्यधिक सुन्दर एवं विलक्षण होने से क्या लाभ ? क्योंकि लोक में तो लोग चन्द्रमा की तरह विद्वान् के मुख को ही देखते हैं। ज्ञान को ही मुक्ति का साधन माना गया है, क्योंकि ज्ञानी व्यक्ति संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। साधक के लिए कहा गया है कि जिस एक पद द्वारा व्यक्ति वीतराग के मार्ग में प्रवृत्ति करता है, मृत्यु समय में भी उस पद को नहीं छोड़ना चाहिए। चारित्र गुण__ चारित्र गुण नामक छठे द्वार में उन पुरुषों को प्रशंसनीय बतलाया गया है, जो गृहस्थरूपी बन्धन से पूर्णतः मुक्त होकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट मुनि-धर्म के आचरण हेतु प्रवृत्त होते हैं। दृढ़ धैर्य वाले मनुष्यों के विषय में कहा है कि वे दुःखों के पार चले जाते हैं। आगे यह भी कहा है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और जुगुप्सा को समाप्त कर देने वाले उद्यमी पुरुष ही परमसुख को खोज पाते हैं। चारित्र शुद्धि के विषय में कहा गया है कि पांच समितियों और तीन गुप्तियों में जिसकी निरन्तर मति है तथा जो राग-द्वेष नहीं करता है, उसी का चारित्र शुद्ध होता है। । प्रस्तुत ग्रन्थ में रत्नत्रय में से सम्यग्दर्शन की प्राथमिकता को स्वीकार किया गया है। बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि वह दर्शन को पकड़ रखे, क्योंकि चारित्र रहित व्यक्ति तो भविष्य में सम्यक् चारित्र का अनुसरण करके सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु दर्शन रहित व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकते। उत्तराध्ययनसूत्र में भी सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अपेक्षा सम्यकदर्शन को ही प्राथमिकता दी गई है।' तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में १. उत्तराध्ययनसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, व्यावर; अध्ययन २८-२९ । २. “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः ।"-तत्त्वार्थसूत्र- विवेचक पं०.
फूलचन्द शास्त्री, प्रका० श्री गणेश प्रसाद वर्णी दिग० संस्थान, वाराणसी, सूत्र १।१।
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