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________________ ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास इन तथ्यों को निम्न तुलनात्मक तालिका से समझा जा सकता है तत्त्वार्थ एवं तत्त्वार्थभाष्य कसायपाहुडसुत्त समवायांग/षटखण्डागम श्वेताम्बर-दिगम्बर तत्त्वार्थ की टीकाएँ एवं भगवती आराधना, मूलाचार, समयसार, नियमसार आदि। १ ३री-४थी शती ३री-४थी शती ५वीं शती ६ठीं शती या उसके पश्चात् गुणस्थान, जीवसमास, गुणस्थान, जीवस्थान, गुणस्थान शब्द का गुणस्थान शब्द की उपजीव-स्थान आदि शब्दों का जीवसमास आदि शब्दों का अभाव किन्तु जीवठाण स्थिति पूर्ण अभाव। अभाव, किन्तु मार्गणा शब्द या जीवसमास के नाम पाया जाता है। से १४ अवस्थाओं का चित्रण। कर्मविशुद्धि या आध्या- कर्म विशुद्धि या आध्या- १४ अवस्थाओं का १४ अवस्थाओं का त्मिक विकास की दस त्मिक विकास की दृष्टि से उल्लेख है। उल्लेख है। अवस्थाओं का चित्रण, मिथ्यादृष्टि की गणना करने मिथ्यात्व का अन्तर्भाव पर प्रकार भेद से कुल १३ करने पर ११ अवस्थाओं अवस्थाओं का उल्लेख का उल्लेख www.jainelibrary.org श्रमण, जनवरी-मार्च, १९९२
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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