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________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास मूलाचार' और भगवती आराधना जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि, भट्ट अकलंक के राजवार्तिक , विद्यानन्दी के श्लोकवार्तिक आदि दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। उपर्युक्त ग्रन्थों के मूल सन्दर्भो से यह स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागम को छोड़कर शेष सभी इसे गुणस्थान के नाम से अभिहित करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी आवश्यक १. मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव । देसविरदो पमत्तो आपमत्तो तह य णायब्बो।। १५४ ।। एत्तो अपुवकरणो आणियट्टी सुहुमसंपराओ य । उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणे अजोगी य ॥ १५५ ॥ सुरणारयेसु चत्तारि होति तिरियेसु जाण पंचेव । मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणामघेयाणि ॥ १५९ ॥ -मूलाचार (पर्याप्त्यधिकार), पृ० २७३-२७९; मणिकचन्ददिगम्बर ग्रन्थमाला (२३), बम्बई, वि० सं० १९८० । २. अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुब्बकरणं सो । होइ तमपुव्वकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति ।। २०८७ ।। अणि वित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म । णिहाणिद्दा पयलापयला तध थीण गिद्धि च ।। २०८८ ।। -भगवती आराधना, भाग २ (सम्पा० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) पृ. ८९० (विशेष विवरण हेतु देखें गाथा-२०७२ से २१२६ तक ।) ३. सर्वार्थसिद्धि (पूज्यपाद देवनन्दी) सूत्र १-८ की टीका, पृ० ३०-४० तथा ___९-१२ की टीका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५५. ४. राजवार्तिक (भट्ट अकलंक) ९-१०।११, पृ० ५८८ ५. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकम् (विद्यानन्दी), निर्णयसागर प्रेस सन् १९१८ देखें गुणस्थानापेक्ष....... १०-३;..'गुणस्थानभेदेन. ९-३६-४, पृ० ५०३,..." अपूर्वकरणादीनां । ९-३७-२; विशेष विवरण हेतु देखें-९।३३-४४ तक की सम्पूर्ण व्याख्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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