________________
। १४ । गीता में पुरुषार्थ चतुष्टय
पुरुषार्थचतुष्टय के सम्बन्ध में गीता का दृष्टिकोण जैन परम्परा से भिन्न नहीं है। गीता की दृष्टि में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। वही परम मूल्य है। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी धृति को गीताकार ने राजसी कहा है । लेकिन यह मानना भी भ्रान्तिपूर्ण होगा कि गीता में इन पुरुषार्थों का कोई स्थान नहीं है। गीताकार जब काम की निन्दा करता है,२ धर्म को छोड़ने की बात करता है, तो मोक्षपुरुषार्थ या परमात्मा की प्राप्ति की अपेक्षा से ही । मोक्ष ही परमाध्य है; धर्म, अर्थ और काम का मोक्ष के निमित्त परित्याग किया जा सकता है। गीताकार की दृष्टि में भी यदि धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के अविरोधी हैं तो वे ग्राह्य हैं। गीताकार की मान्यता भी यही प्रतीत होती है कि अर्थ और काम को धर्माधीन होना चाहिए और धर्म को मोक्षाभिमुख होना चाहिए । धर्मयुक्त, यज्ञ (त्याग) पूर्वक एवं वर्णानुसार किया गया आजीविकोपार्जन गीता के अनुसार विहित ही है। यद्यपि धन की चिन्ता में डूबे रहनेवाले और धन का तथा धन के द्वारा किये गये दान-पुण्यादि का अभिमान करनेवाले को गीता में अज्ञानी कहा गया है तथापि इसका तात्पर्य यही है कि न तो धन को एकमात्र साध्य बना लेना चाहिए और न उसका तथा उसके द्वारा किये गये सत्कार्यों का अभिमान ही करना चाहिए। इसी प्रकार कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में गीता का दृष्टिकोण यही है कि उसे धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्राणियों में धर्म-अविरुद्ध काम मैं हूँ। सभी भोगों से विमुख होने की अपेक्षा गीताकार की दृष्टि में यही उचित है कि उनमें आसक्ति का त्याग किया जाये। वस्तुतः यह दृष्टिकोण भोगों को मोक्ष के अविरोध में रखने का प्रयास है। इसी प्रकार गीता जब यह कहती है कि बिना यज्ञ के जो भोग करता है, वह चोर है, तो उसका प्रमुख दृष्टिकोण कामपुरुषार्थ को धर्माभिमुख बनाने का ही है ।६ .
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता की विचारधाराओं
१. गीता, १८।३४. २. वही, १६।२१. ३. वही, १८।६६. ४. वही, १६।१०, १२, १५. ५. वही, ७।११. ६. वही, ३।१३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org