________________
[१३]
से दरिद्रता बहुत बढ़ गयी और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गयी । " चोरी के बहुत बढ़ने का अर्थ धन की असुरक्षा है । इसके पीछे बुद्ध का निर्देश यही है कि समाज में धन का समवितरण होना चाहिए ताकि समाज का कोई भी वर्ग अभाव से पीड़ित न हो । बुद्ध की दृष्टि में अर्थ को कभी भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए, वे धर्मयुक्त व्यवसाय में नियोजित होने का ही निर्देश देते हैं । जो जीवन में धन का दान एवं भोग के रूप में समुचित उपयोग नहीं करता, उसका धन निरर्थक है, क्योंकि मरनेवाले के पीछे उसका धन आदि नहीं जाता है और न धन से जरामरण से ही छुटकारा मिल सकता है । कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करता है । उदान में बुद्ध कहते हैं, "ब्रह्मचर्य जीवन के साथ व्रतों का पालन करना हो सार है, यह एक अन्त है । कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा अन्त है । इन दोनों अन्तों के सेवन से संस्कारों को वृद्धि होती है, मिथ्याधारणा बढ़ती है, व्यक्ति मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है ।"" इस आधार पर कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में बुद्ध का दृष्टिकोण यही प्रतीत होता है कि जो काम धर्म अविरुद्ध है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति या चित्त की विकलता समाप्त होती है; वह काम आचरणीय है । इसके विपरीत धर्मविरुद्ध मानसिक अशान्तिकारक काम या विषयभोग अनाचरणीय है ।
बुद्ध की दृष्टि में भी जैन विचार के समान धर्मपुरुषार्थ निर्वाण या मोक्षपुरुषार्थं का साधन है । मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, “भिक्षुओं मैंने बेड़े की भाँति पार जाने के लिए ( निर्वाणलाभ के लिए ) तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं ।" अर्थात् निर्वाण की दिशा में ले जानेवाला धर्म ही आचरणीय है । बुद्ध की दृष्टि में जो धर्म निर्वाण की दिशा में नहीं ले जाता, जिससे निर्वाणलाभ में बाधा आती हो वह त्याग देने योग्य है । इतना ही नहीं, बुद्ध धर्म को एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं और साध्य की उपलब्धि के लिए उसे भी छोड़ देने का सन्देश देते हैं । उनकी दृष्टि में परममूल्य तो निर्वाण ही है ।
१. दीघनिकाय, ३।३।४.
२. सुत्तनिपात, २६।२९. ३. मज्झिमनिकाय, २०३२।४. ४. उदान, जात्यन्धवर्ग, ८. ५. मज्झिमनिकाय, ११२२/४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org