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________________ श्रमण. जनवरी-मार्च १९९२ (झ) शून्यवाद वस्तुविषयक सापेक्षता का अनुभव करके भी उसे व्यक्त नहीं करता जबकि स्याद्वाद उसे व्यक्त करता है । (ञ) शून्यवाद ने तत्त्व के विषय में मध्यम मार्ग स्वीकार किया जबकि स्याद्वाद ने विवाद को अन्त करने का प्रयास किया उसने सभी सिद्धान्तों में समन्वय कर एक नवीन सिद्धान्त को प्रतिपादित किया । १०० (ट) शून्यवाद एवं स्याद्वाद दोनों ने ही तत्त्व को अनिर्वचनीय एवं अव्यक्त स्वरूप माना है किन्तु उनमें निम्न सूक्ष्म भिन्नतायें विद्यमान हैं ( १ ) शून्यवाद में अनिर्वचनीयता का कारण तत्त्व का स्वरूप है किन्तु स्याद्वाद में अव्यक्तता का कारण तत्त्व सम्बन्धी कथन या भाषा की अक्षमता है । दूसरे शब्दों में शून्यवादी विषयी अर्थात् चरमतत्त्व के स्वरूप को ही अनिर्वचनीय कहते हैं जबकि स्याद्वाद की अव्यक्तता भाषात्मक है । (२) अनिर्वचनीयता निरपेक्ष है क्योंकि इस अर्थ में तत्त्व विवेचन योग्य नहीं है । अव्यक्तता भंगसापेक्ष है । यह तत्त्व को सापेक्षतः वाच्य एवं सापेक्षतः अवाच्य बताता है । इन दोनों सिद्धान्तों में निहित समानताओं और असमानताओं की चर्चा के बाद यह विचार करना आवश्यक है कि इन दोनों में कौनसा मत श्रेष्ठ माना जा सकता है दोनों मतों ने एकान्तवादी विचारधारा का निराकरण अपने -२ ढंग से किया है । परन्तु इस प्रक्रिया में शून्यवादियों का सर्वथा निषेधात्मक दृष्टिकोण उन्हें पुनः एकान्तवादियों की श्रेणी में ही सम्मिलित करा देता है । शून्यवादियों को एकान्तवाद से बचने के लिए उसके दोनों पक्षों (तत्त्व सत् भी है और असत् भी है आदि) को समान रूप से स्वीकार करना चाहिए था । इस दृष्टि से हम स्याद्वाद को उत्तम स्वीकार करते हैं क्योंकि उन्होंने तत्त्व के विभिन्न पक्षों सत् भी है. एवं असत् भी है या सत् है भी और नहीं भी है, को समान रूप से स्वीकार किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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