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श्रमण, जनवरी-मार्च १९९२
असंगत न होगा कि शून्य और स्याद् शब्दों के द्वारा प्रसंगविशेष में प्रदत्त विशिष्ट अर्थों को न समझ सकने के कारण ही इन पर क्रमशः अभाववाद तथा संशयवाद या निश्चयवाद या अनिश्चयवाद के आरोप लगे हैं। विद्वानों ने शून्य का अर्थ अभाव
लिया तथा स्याद् का अर्थ सम्भवतः कदाचित्, संशय आदि लिया। (ख) सामान्य मानव के ज्ञान की मर्यादा है जबकि वस्तु अनन्त
धर्मात्मक है। अतः वस्तु का पूर्ण ज्ञान सम्भव नहीं है और यदि हम मान भी लें कि वस्तु विषयक यथार्थ ज्ञान पूर्ण रूप से सम्भव नहीं है तो भी वस्तु विषयक सभी कथनों का युगपत् कथन मानव की वाणी में सामर्थ्य से परे है। उदाहरणार्थ एक ही पुष्प के रूप, रंग, खिलने, बिखरने आदि को एक समय में नहीं कह सकते हैं । वस्तु-स्वभाव को इसी कारण शून्यवादियों ने अनिर्वचनीय कहा, जो शून्य का भावात्मक अर्थ है । इसी अनिर्वचनीयता को जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद के माध्यम से व्यक्त
किया। (ग) दोनों विचारकों का एक मात्र उद्देश्य वस्तु के चित्र-विचित्र
स्वभाव के ग्रहण में मानव की अक्षमता बताना ही था। मानवगत अक्षमता का अनुभव करके ही बुद्ध ने जीव, जगत, तत्त्वादि विचारों को निरर्थक कहकर त्याग दिया। उनके अनुसार वस्तुओं का एक निश्चित स्वभाव नहीं है, इसी कारण उन्होंने उसे अनिर्वचनीय, अव्याख्येय, शून्य कहा। महावीर ने वस्तुविषयक अनन्त धर्मों को, विधिपरक सिद्धान्त अपनाकर स्यात् शब्द द्वारा व्यक्त किया । मूलरूप से दोनों ने वस्तु के अनन्त धर्मों का अनुभव किया किन्तु एक ने उसका वर्णन निषेध द्वारा तो दूसरे ने विधि
द्वारा किया। (घ) शून्यवादी एवं स्याद्वादी दोनों ने ही वस्तु स्वरूप के विषय में
अभिव्यक्ति की असमर्थता को स्वीकार किया है । इसकारण उन्होंने उसे अनिर्वचनीय एवं अव्यक्त कहा है। सभी विचारक इनदोनों शब्दों को प्रायः एक ही अर्थ में रख लेते हैं। मुझे इसमें कुछ भिन्नता दिखाई देती है। स्याद्वादियों ने वस्तु विषयक कथन में
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