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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ अर्थात् विषय या गुण संसार चक्र के मूल कारण हैं । श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसना और त्वक् इन पाँच इन्द्रियों के शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श ये पाँच विषय हैं; इन्हें ही गुण कहा गया है, ये ही संसार चक्र या आवर्त एवं मूलस्थान (संसार) हैं। चूकि संसार का मूल कषाय हैं एवं कषायों के आश्रय ये गुण हैं अतएव गुण अर्थात् इन्द्रिय विषय संसार के मूल कारण हैं, यह दो प्रकार का होता है-इष्ट और अनिष्ट । इष्ट गुण एवं अनिष्ट गुण के प्रति क्रमशः राग और द्वेष भाव होता है। गुण अर्थात् विषय से कषाय में वृद्धि होती है एवं कषाय से संसार । विषयों में आसक्ति बढ़ने से संसार सम्बन्ध-प्रगाढ़ होता है एवं आत्मा की गति साधना विमुख हो जाती है, सांसारी सुखोपभोग में जीव लिप्त हो जाता है । आचारांग में कहा गया है कि विषयों में आसक्त प्राणी विषय कामना से सावध कर्मो में लिप्त रहते हैं। ये पुरुष अशरणरूप पाप कर्म को शरणभूत मानते हुए नाना प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते हैं। वे नट की भाँति विषयों के पीछे घूमते हैं। अत्यन्त धूर्त एवं आस्रवों में आसक्ति रखने वाले ऐसे पुरुष विषय कषाय भूत कर्म करने में पटु, कर्मानुष्ठान में चतुर, पापों से निवृत्त न होने वाले एवं अविद्या से सुख तथा मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले होते हैं । ये विषयपूर्ति हेतु संयम त्याग देते हैं परन्तु भोगासक्त की भोगेच्छा सदैव अतृप्त रहती है क्योंकि इच्छा, तृष्णा या कामना अपरिमित है एवं जीव-आयु सीमित है। इसलिए वह सदैव ही अतृप्त रहता है। वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए प्राणियों की हिंसा करता है', छेदन-भेदन करता है एवं इच्छा अतृप्त होने पर क्रोध और शोक करता हुआ दूसरों को हानि पहुँचाता है। वह अस्थिर चित्त एवं तनाव ग्रस्त होता है। काम के दो भेद हैं..-- १. आचारांग- १।५।१।१४६ २. वही १।१।६।५२ ३. वही १।२।१।६६ ४. कामा दुरत्तिकामा जीवियं दुप्पडिवूहगं काम कामी खलुअयं पुरिसे से सोयति. जूरति. तप्पति. पिड्डति परितप्पति । वही १।२।५।९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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