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________________ "७९ आचारांग में अनासक्ति तात्पर्य यह है कि कामी पुरुष को स्त्री को प्राप्त करने में अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है तब जाकर उसे स्पर्श सुख प्राप्त होता है, फिर यही स्पर्श सुख उसके कर्मबन्धन का कारण बनता है जिससे उसे नरकादि यातनाओं का दण्ड भोगना पड़ता है। स्त्रियों में आसक्त पुरुष को असंयमित जीवन ही प्रिय लगता है, वह मूढ़ता को प्राप्त होकर विपरीत आचरण करता है। वह नहीं जानता कि ये स्त्रियां कलह और संग्रामादि का कारण एवं राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली हैं । महावीर स्वामी ने कहा है कि भिक्षु स्त्री की कथा न करे, उसके अंग-प्रत्यंग का अवलोकन न करे उसके साथ एकान्त वासता न · करे उनमें ममत्व (आसक्ति) न करे तथा उनसे एकान्त में वार्तालाप न करे एवं पापकर्मो का सदा त्याग करे । विचारशील भिक्षु यदि ग्रामधर्म या विषयवासना से पीड़ित हो जाय तो उसे नीरस आहार लेना चाहिए, उनोदरी तप (अल्पाहार) करना चाहिए, ऊँचे स्थान पर खड़े होकर कायोत्सर्ग द्वारा आतापना लेनी चाहिए परन्तु स्त्री में मन को आसक्त नहीं करना चाहिए। उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मैं सब प्रकार के मैथुन का यावज्जीवन त्याग करता हूँ। मैं देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन को कृत, कारित एवं अनुमोदन पूर्वक छोड़ता हूँ"। विषय-भोगो में अनासक्ति : विषयों में आसक्ति दुःखों का मूल है। आचारांग में विषय-अर्थात् गुण को आवर्त एवं मूलस्थान की संज्ञा दी गई है-जे गुणे से आवट्टे जे आवट्ट से गुणे जे गुणे से मूलठाणे जे मूलठाणे से गुणे" १. वही- १।२।३।८० २. वही- १।५।४।१६० ३. वही- १।५।४।१६० ४. उवहिज्जमाणे गामधम्मेहिं अविनिव्वलासए अवि च ए इत्थीसु मणं । वही- १।५।४।१६० ५. वही- १।१।२।१५ ६. वही- १।१५।४ १७. वही- १।२।१।६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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