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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ७६ ३१ - एवं स्व को पहचान । सूत्रकार घर-परिवार में आसक्त व्यक्ति की तुलना वृक्ष के पत्तों से आच्छादित सरोवर में पड़े हुए कछुए से करता है । जिस प्रकार पत्तों के कारण वह कछुआ वहाँ से निकलने में समर्थ नहीं हो पाता, उसी प्रकार गृहवास में आसक्त जीव गृहस्थ जीवन का · त्याग करने में सफल नहीं हो पाता । इसलिए साधक को घर-परिवार में अनासक्तिभाव रखकर, मैं संसार में एकाकी हूँ, मेरा कोई नहीं है इस भावना से आत्मान्वेषण कर जिनोपदिष्ट मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए । • जातिकुल और गोत्र के अभिमान का निषेध : कुछ लोग ऊंच-नीच कुलोत्पत्ति के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ एवं अन्य को हीन मानने लगते हैं । परिणामस्वरूप दूसरों के प्रति घृणा एवं तिरस्कार भावना जन्म लेती है । साधक यह जानकर अभिमान का परित्याग करे कि कर्म की आठ प्रकृतियों में से गोत्र कर्म प्रकृति के कारण ही जीव उच्च एवं नीच कुलों को प्राप्त होता है अतः ॐच या नीच जातिगत या जन्मगत नहीं अपितु कर्मजन्य हैं अर्थात् गोत्र कर्म के उदय से ही प्राणी ऊँच-नीच गोत्र वाला कहा जाता है । उच्च गोत्र में उत्पत्ति से न तो आत्मा में महानता आ पाती है और न ही निम्नगोत्र में पैदा होने से हीनता । प्रत्येक आत्मा इन दोनो गोत्रों का अनन्तबार अनुभव कर चुकी है इसलिए प्राणी को कुलमद नहीं करना चाहिए । सूत्रकार के शब्दों में 'ऐसा जानकर कौन अपने गोत्र का अभिमान करेगा और किस बात में आसक्त होगा । अतः साधक को अनासक्त भाव से उच्च या नीच गोत्रोत्पत्ति पर हर्ष या शोक न करते हुए समभाव में रहना चाहिए । धन में अनासक्तिः - ग्रन्थ में धन-सम्पत्ति में अनासक्तिभाव रखने की अनेक स्थलों पर प्ररूपणा की गई है । अर्थ पाप प्रवृत्ति का जनक है । मनुष्य धन के लिए पागल और उन्मत्त होकर भयंकर से भयंकर पाप करने को उद्यत हो जाता है और उसके दुःखदायी परिणामों की ३. जेहि वा सद्धि सेवसंति तेऽवि ण एगदा णियगा तुमंपि तेसि णात्म ताणाए वा सरणाए वा । वही - १।२।३।७८ २४. वही - १२।३।७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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