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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ आत्मा से चिपके कर्मपुद्गलों (सूक्ष्म कण) में पापपुण्य की अधिकता और न्यूनता के तारतम्य से लाल, पीला, काला आदि रंगों (लेश्या) का समायोजन मानना भी इनकी विशेषता है । दासगुप्ता लिखते हैं कि सम्भवतः योग दर्शन में कर्मों के शुक्लत्व, कृष्णत्व का विचार जैन दर्शन से लिया गया है क्योंकि योगदर्शन भी पापपुण्यानुसार कृष्णशुक्ल की कल्पना करता है । जैनदर्शन में कर्म की बन्धन एवं उदय के अतिरिक्त चार अन्य अवस्थायें भी होती हैं-- अपवर्तन, उद्वर्तन, उदीरणा एवं संक्रमण। यदि कर्मों को फलभोग कराने में प्रबल रूपेण सक्षम मानने के साथ-साथ कर्मफल को पूर्णतः अपरिवर्तनीय समझ लिया जाए तो अच्छे कर्म करने का प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हो सकता है। इसलिए कुछ विचारकों का कहना है कि विशेष प्रयत्नों से कर्मफल में परिवर्तन किया जा सकता है। जैसे-वर्तमान जन्म में चेष्टापूर्वक शुभ कर्म कर प्राणी पूर्वजन्म के अशुभ विपाक को समाप्त कर सकता है अथवा अशुभ फल में कमी हो सकती है या अशुभ शुभ फल दे सकता है। प्रयत्नपूर्वक शुभ कर्म वर्तमान जीवन के साथ भविष्यजन्मों को भी सुधार देता है। यह कर्म सिद्धान्त का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है कि जीव अपने श्रम, कुशलता, सजगता एवं चेष्टाओं से भाग्य परिवर्तन करने में समर्थ हैं।
उपर्युक्त संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि अनेक स्थानों पर सभी दर्शनों में साम्य दिखायी देता है किन्तु अनेक स्थलों पर विषमता भी है। कर्मबन्ध का अस्तित्व सभी ने माना है एवं इससे मुक्ति पाना ही दर्शनशास्त्रों का लक्ष्य है। कर्म जीवन के निर्माता हैं। अपने जीवन के सुख-दुख का व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी होता है। कर्म चुनने की स्वतन्त्रता होने पर भी प्राणी फलभोग चुनने में स्वतन्त्र नहीं होता । सकाम कर्म ही वास्तविक बन्धन है निष्काम कर्म नहीं । प्राणी १. (क) गोम्प्रटसार, जीवकाण्ड, मूल ५३६-९३१
(ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र-६५० 2. Indian Philosophy, Radhakrishnan Vol I, P. 73-1 ३. योगसूत्र; २।१३ भगवती १।२५, ३१, ५।१६; सूत्र कृतांगसूत्र १।३१,
गणधरवाद २।१५ और ठाणांगसूत्र-४॥६०३
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