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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ १८ कर्मणिभूत- गया, किया, दिया, पिया, कृत = करित = कर्य, भर्य कृदन्त के खाया, (करिय, कर्य आदि से) हिन्दी के रूप इन रूपों के बदले में 'य' श्रुति रहित उद्धृत स्वर वाले काअर, माअर, गओ, गआ, खाआ, कउँ, भउँ की कल्पना भी की जा सकती है क्या ? वररुचि के अनुसार प्रारम्भिक और मध्यवर्ती न-कार का ण-कार हो जाता है। हेमचन्द्र के अनुसार प्रारम्भिक न-कार का ण-कार वैकल्पिक है और मध्यवर्ती न-कार का ण-कार भी सर्वत्र नहीं होता है। हेमचन्द्र ने सामान्य प्राकृत भाषा में जो-जो उदाहरण दिये हैं उनमें प्रारम्भ में नौ में से सिर्फ एक ही न-कार का ण-कार मिलता है यहाँ तक कि अपभ्रंश भाषा के उदाहरणों में भी प्रारम्भ का न-कार प्रायः न-कार ही रहता है। भारत भर में फैले प्राकृत शिलालेखों का अध्ययन किया जाय तो विदित होगा कि नकार का ण-कार बनने की प्रवृत्ति दक्षिण भारत से अन्य भागों में धीरे-धीरे फैली है और वह भी वररुचि के नियम के अनुसार प्रारंभिक और मध्यवर्ती न-कार में सर्वत्र और सदा के लिए नहीं। प्राकृत भाषाओं में से विकसित हमारी आधुनिक भाषाओं के प्राचीन या आधुनिक साहित्य में या वर्तमान में बोली जाने वाली भाषाओं में कितने ऐसे शब्द परम्परा से चले आये हैं जिनमें प्रारंभ या मध्य में न का ण मिलता हो यह एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन का विषय है। इस अध्ययन के आधार से क्या ऐसा नहीं लगता कि किसी व्याकरणकार के क्षेत्रीय नियम ने सारे प्राकृत साहित्य को कृत्रिम और वास्तविकता रहित बना दिया। भाषा की एकरूपता के मोह में फँसकर कभी-कभी हम और हमारे साहित्यकार वास्तविकता से कितने दूर चले जाते हैं यह इसका ज्वलन्त प्रमाण है । इस संक्षिप्त परंतु तथ्यात्मक अध्ययन के बल पर ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि प्राचीन प्राकृत साहित्य का चाहे वह अर्धमागधी Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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