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________________ १७ (ii) तृ० ब० ० -- अवहत्थि असम्भावेहि (सप्तशती), छिण्णाअवमण्डले हि (सेतुबन्धम् ) अमूललहुएहि ( गौडवहो ) (iii) स० ब० व० - वणेसुं (सप्तशती) इस प्रत्यय के प्रयोग शाकुन्तलम् और विक्रमोर्वशीयम् में भी मिलते हैं । इन सब साक्ष्यों के आधार से ऐसा कहा जा सकता है कि वररुचि का प्राकृत प्रकाश (सूत्र एवं भामह की वृत्ति) महाराष्ट्री प्राकृत भाषा का व्याकरण भी उचित रूप में प्रस्तुत नहीं कर रहा है । इससे हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की महिमा और भी बढ़ जाती है यह निस्संकोच कहा जा सकता है । इस प्रसंग में और भी मुद्दों पर चर्चे किये जा सकते हैं परन्तु निबन्ध का विस्तार बहुत बढ़ जाने के भय से एक-दो बातों को संक्षेप में कह देना उचित होगा । इनकी विस्तार पूर्वक चर्चा और कहीं पर अवश्य की जाएगी । वररुचि के अनुसार मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप होने पर उद्भुत स्वर सभी जगह वैसा का वैसा बना रहता है और जैनेतर साहित्यकारों ने भी यही पद्धति अपनायी है। हेमचन्द्र के अनुसार अमुक परिस्थितियों में उद्धृत अ और आ प्रायः 'य' श्रुति में बदल जाते हैं और जैन लेखकों की भी यही पद्धति रही है । इन दोनों में से कौन कितना सही है ? जन-भाषा यदि प्रमाणभूत हो तो देखिए तीसरी शताब्दी ई० पूर्व से चौथी शताब्दी तक के प्राकृत शिलालेख जिनमें 'य' श्रुति के सारे भारत में कितने ही उदाहरण मिलते हैं । यही प्रवृत्ति आधुनिक भाषाओं में भी यत्र तत्र देखने को मिलती है । उदाहरणार्थ संस्कृत कातर धनपतराज अमृत पितृगृह गुजराती कायर धनपतराय अमी (अमिय ) ( अमिइ ) पियर Jain Education International हिन्दी कायर धनपतराय अमिय पियर संस्कृत मात्रगृह गतः वचन प्राकृत व्याकरण वचण For Private & Personal Use Only गुजराती मायर गयो } वेण (वद्दण) www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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