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( २८ ) भक्ति नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके बाद सागर, नागर, प्रविभक्ति नामक अपूर्व नाट्यविधि अभिनीत की । तत्सश्चात् नन्दा, चम्पा, प्रविभक्ति नामक नाट्य विधि का प्रदर्शन किया। इसके पश्चात् मत्स्याण्ड-मकराण्ड-जार-मार प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। तदनन्तर उन्होंने 'क' अक्षर को आकृति की रचना करके ककार प्रविभक्ति इसी प्रकार ककार से लेकर पकार पर्यन्त पाँच वर्गों के २५ अक्षरों के आकार का अभिनय प्रदर्शन किया। तत्पश्चात् पल्लव प्रविभक्ति नामक नाट्यविधि प्रस्तुत की और इसके बाद उन्होंने नागल ता, अशोकलता, चम्पकलता, आम्रलता, वनलता, वासन्तीलता, अतिमुक्तकलता, श्यामलता की सुरचना वाली लता प्रविक्ति नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके पश्चात् अनुक्रम से द्रुत, विलम्बित, द्रुतविलम्बित, अंचित, रिभित, अंचितरिभित, आरभट, भसोल और आरभटभसोल नामक नाट्यविधियों का प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों के पश्चात् वे सभी एक स्थान पर एकत्रित हुए तथा भगवान् महावीर के पूर्व भवों से सम्बन्धित चरित्र से निबद्ध एवं वर्तमान जीवन सम्बन्धी च्यवनचरित्रनिबद्ध गर्भसंहरणचरित्रनिबद्ध, जन्मचरित्रनिबद्ध, जन्माभिषेक, बालक्रीड़ानिबद्ध, यौवन-चरित्रनिबद्ध, अभिनिष्क्रमण-चरित्रनिबद्ध, तपश्चरण-चरित्रनिबद्ध, ज्ञानोत्पाद-चरित्रनिबद्ध, तीर्थ-प्रवर्तन चरित्र से सम्बन्धित, परिनिर्वाण चरित्रनिबद्ध तथा चरम चरित्रनिबद्ध नामक अन्तिम दिव्य नाट्य अभिनय का प्रदर्शन किया।"22
धामिक नाटकों, जिनका एक अंग नृत्य भी था के मंचन की परम्परा आज भी जैनधर्म में जीवित रूप से पायी जाती है। विगत शताब्दी में श्रीपाल मैन सुन्दरी नाटक के मंचन के लिए एक पूरा समुदाय ही था जो स्थान-स्थान पर जाकर इस एवं अन्य भक्तिप्रधान नाटकों को मंचित करता और उसी के सहारे अपनी जीवनवृत्ति चलाता था। आज भी जैनों के धार्मिक समारोहों के अवसर पर जैन परम्परा के कथानकों से सम्बद्ध नाटकों का मंचन किया जाता है । अतः संगीत, नृत्य एवं नाटक एक जीवित परम्परा के रूप में आज भी जैन परम्परा के साथ जुड़े हुए हैं।
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