SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२ ) हैं तो कम से कम गृहस्थ उपासक को भी इस प्रकार से भक्ति करने का अवसर मिलना चाहिए । अतः जैन प्रतिमाओं के समक्ष न केवल वैराग्य प्रधान संगीत की स्वर लहरियां गुंजित होने लगीं, अपितु नृत्य और नाटक भी उसके साथ जुड़ गये। हमें साहित्यिक और पुरातात्त्विक ऐसे अनेक साक्ष्य मिलते हैं जिनके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दियों में ही नृत्य संगीत और नाटक जैन धार्मिक विधि-विधानों के अंग बन चुके थे। तीर्थंकरों के जन्म कल्याणक के अवसर पर देवी-देवताओं के द्वारा संगीत, नृत्य और नाटक करने के उल्लेख कल्पसूत्र आदि प्राचीन ग्रंथों में भी उपलब्ध हो जाते हैं। न केवल देवी-देवताओं के द्वारा, अपितु तीर्थंकर के पारिवारिक जन भी उनके जन्म आदि के अवसर पर नृत्य, संगीत आदि का आयोजन करते थे, ऐसे उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। यह प्रचलित लोक व्यवहार ही जैनधर्म के धार्मिक अनुष्ठान का अंग बन गया। जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि जैन धार्मिक अनुष्ठानों में जिन षडावश्यकों की प्रतिष्ठा है उनमें एक आवश्यक कृत्य स्तवन भी है। तीर्थंकरों की स्तुति को धार्मिक साधना का एक आवश्यक अंग मान ही लिया गया था अतः इस स्तुति के साथ ही संगीत को जैन साधना में स्थान मिल गया । भक्तिरस से परिपूर्ण स्तवन पूजा तथा प्रतिक्रमण में गाये जाने लगे। आज भी जैनधर्म की सभी परम्पराओं में विभिन्न धार्मिक विधि-विधानों के अवसर पर भक्ति गीतों के गाये जाने का प्रचलन है। मुख्यरूप से भक्ति गीत जिनपूजा के अवसर पर तथा प्रातःकालीन एवं सायंकालीन प्रतिक्रमणों के पश्चात् गाये जाते हैं। अनूर्तिपूजक सम्प्रदायों में जहाँ जिन प्रतिमा की पूजा परम्परा नहीं है वहाँ भी प्रातःकालीन एवं सायंकालीन प्रतिक्रमणों के पश्चात् तथा प्रार्थना और सामायिक में भक्ति गीतों के गाने की परम्परा मिलती है । न केवल इतना ही हुआ अपितु जैन मुनियों के प्रवचन में भी संगीत का तत्त्व जुड़ गया है। प्राचीनकाल से लेकर बर्तमान समय तक जैन आचार्यों ने अनेक काव्य एवं गीत लिखे हैं मौर ये काव्य एवं गीत अक्सर मुनियों के प्रवचनों में गेय रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy