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( १७ ) आह्वान नैव जानामि नैत्र जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥१॥ मन्त्रहीन क्रियाहीनं द्राहीनं तथैव च। तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥२॥
-विसर्जनपाठ। इनके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥१॥ मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥२।। इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यज्ञ का विधान, विनायक यन्त्र स्थापना, यज्ञोपवीतधारण भी जैन परम्परा के अनुकूल नहीं है। इधर जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा, तो पंचोपचारपूजा विधि का प्रवेश हुआ । दसवीं शतो के अनन्तर इस विधि को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ, जिससे पूर्व प्रचलित विधि गौण हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आहवानन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन क्रमशः पंच कल्याणकों को स्मृति के लिए व्यवहृत होने लगे। पूजा को वैवावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य स्थान प्राप्त हुआ। पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को अतिथि संविभाग वा का अंग मान लिया गया। वह भी ब्राह्मण परम्परा की अनुकृति ही है। यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जानेवाले मन्त्रों को निश्चय ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थंकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो वह तीर्थंकर की सेवा में नैवेद्य अर्पित करे यह क्या सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी ? मंदिर एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित सम्पूर्ण अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत प्रकृति के प्रतिकूल कहे जा सकते हैं । किन्तु किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से
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