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(१०) प्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न, महिमाशाली १०८ छन्दों से भगवान् की स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे हटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर तीन बार मस्तक पृथ्वीतल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा कर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं...... ठाणं संपत्ताणं' का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे प्रमाजित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप किया तथा पुष्षसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छि से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमाणित किया तथा उनका प्रक्षालन कर उनको चंदन से अचित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उसने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्रध्वजा की पूजा-अर्चना की।18 इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीय में जिनपूजा की एक सुव्यवस्थित अनुष्ठान प्रक्रिया परिलक्षित होती है।
राजप्रश्नीय के अतिरिक्त अष्टप्रकारी पूजा का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं उमास्वाति के पूजा-विधि-प्रकरण में उपलब्ध है। यद्यपि यह कृति उमास्वाति की ही है अथवा उनके नाम से अन्य किसी की रचना है, इसका निर्णय करना कठिन है । अधिकांश विचारक इसे अन्यकृत मानते हैं। इस पूजा-विधि-प्रकरण में यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करे फिर पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करे और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर जिनविंब की पूजा करे । इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती हैं यह भी बतलाया गया है। पूजा-विधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रातःकाल वासक्षेप पूजा करनी चाहिए। पूजा में जिनबिंब के भाल, कंठ आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का उल्लेख है । इसमें यह भी बताया गया है कि मध्याह्नकाल में कुसुम से तथा संध्या में धूप और दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें
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