SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४ ) इस विधि से हुई । पुनः व्यक्ति की स्व या पर के निमित्त से अकाल मृत्यु सम्भव है और इस प्रकार वधकर्ता अपने पाप के बन्ध से बच नहीं सकता। कुछ व्यक्ति इस तर्क को आधार मानकर कि व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है, प्राणि-वध को उचित ठहराते हैं। उनका मत है कि जो जीव जिस प्रकार का कर्म करता है, उसे उस कर्म के विपाक के अनुसार फल मिलता है। वध करने वाला प्राणी तो केवल निमित्त मात्र होता है । वध्यमान प्राणी अपने किये हुए कर्मों के कारण ही वधक के हाथों मारा जाता है। न वह ऐसा कर्म करता और न वह किसी के द्वारा मारा जाता। यह इसलिए भी सत्य प्रतीत होता है कि वधक किसी विशेष प्राणी का ही वध करता है, सबका नहीं । अतः सिद्ध होता है कि जिसने अमुक प्राणी के द्वारा मारे जाने का कर्मबन्ध किया है, वही उसके द्वारा मारा जाता है, अन्य नहीं' । इसलिए इसमें मारने वाले का कोई अपराध नहीं। विद्वान् आचार्य ने इस मत का निराकरण अत्यन्त तार्किक ढंग से किया है। उनका कहना है कि प्राणी यद्यपि अपने किये गये कर्म के उदय से ही मारा जाता है, फिर भी मारने वाले व्यक्ति के अन्तःकरण में संक्लेश-परिणाम होता है, उससे उसके पापकर्म का बन्ध होता है। इसके विपरीत, वध-विरति की प्रतिज्ञा से यह सम्भव है कि वधक के हृदय में निर्मल भाव उत्पन्न हों जिसके प्रभाव से वह प्राणी का घात न करके मुक्ति प्राप्ति का प्रयत्न करे । इसके अतिरिक्त यह एकान्तिक नियम नहीं है कि वध्यमान प्राणी को अपने कर्म के अनुसार किसी व्यक्ति विशेष के हाथों मरना पड़ेगा। हरिभद्र सूरि का कहना है कि प्राणी जिस प्रकार के विपाक से युक्त कर्म को बांधता है, उसमें आत्मा के परिणाम-विशेष से अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि भी संभव हैं । अतएव जो कर्म जिस रूप से बंधा है, उसके विपाक की स्थिति में हीनाधिकता हो सकती है । अतः यह अनिवार्य नहीं है कि व्यक्ति की मृत्यु जिस निमित्त से होनी है, उसी निमित्त से हो। १. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा २०९-१२ २. वही, २१५ ३. वही, २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy