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________________ ( ६३ ) आचरण कोई और करे तथा फल कोई दूसरा भोगे। अतः जीव की कथंचित् नित्यता और कथंचित् अनित्यता एवं इसी प्रकार जीव और शरीर की कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता ही संसार और उसकी कार्यप्रणाली को समझने का सम्यक् सिद्धान्त हो सकती है। कुछ व्यक्ति यह तर्क देते हैं कि व्यक्ति की मृत्यु असमय नहीं होती। हर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है और वह उसी समय और उसी विधि से होती है। इनका तर्क है कि पूर्वकृत आयु कर्म के क्षीण हुए बिना कोई जीव मरता नहीं और आयुकर्म के क्षय हो जाने पर कोई स्वयं ही जीवित नहीं रहता। इस प्रकार जब प्राणी के अकाल मृत्यु की सम्भावना ही नहीं है तब वध की निवृत्ति कराना हास्यास्पद ही है क्योंकि ऐसी अवस्था में वध हो ही नहीं सकता। ____ आचार्य हरिभद्र को यह तर्क स्वीकार्य नहीं है। उनका कहना है कि पूर्वकृत कर्मों का क्षय किया जाता है। संवर और निर्जरा इन्हीं उपायों के नाम हैं। यदि ऐसा नहीं होगा तो मुक्ति की प्राप्ति भी असम्भव हो जायेगी। जिस प्रकार आम आदि को गड्ढे या पलाल आदि में रखकर कृत्रिम उपाय से समय से पूर्व ही पका लिया जाता है, उसी प्रकार कर्म को भी तप आदि विभिन्न उपायों से अपनी स्थिति के पूर्व ही पका लिया जाता है । अतः व्यक्ति को प्राणि-वध से विरत ही रहना चाहिए। आचार्य हरिभद्र का उपर्युक्त तर्क सही है । सांसारिक लोकव्यवहार के उदाहरणों को देकर आचार्य ने अपने तर्क को सबल आधार प्रदान किया है। हम सांसारिक क्रिया-कलापों को देखकर ही किसी तथ्य का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जब आम आदि या इसी प्रकार की अन्य वस्तुएं समय से पूर्व पक सकती हैं तो कर्मों का क्षय भी समय से पूर्व हो सकता है। अतः किसी प्राणी का वध करके यह तर्क देना कि उसकी मृत्यु इसी विधि से निश्चित थी, उचित नहीं । यदि हम पहले से नहीं जानते हैं कि उसकी मृत्यु मेरे हाथों निश्चित है तो हमें हिंसा करने का क्या अधिकार है। यह तो हमें बाद में ही पता होता है कि उसकी मृत्यु १. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा १९२-९४ २. वही, गाथा २००-२०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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