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________________ ( ३९ ) वस्तुतः इन अपवाद नियमों के पीछे जैन आचार्यों के मूलदृष्टि यह थी कि नारी और गर्भस्थ शिशु का जीवन सुरक्षित रहे, क्योंकि ऐसी स्थितियों में यदि उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता है, तो हो सकता था कि उनका शील और जीवन खतरे में पड़ जाय और किसी स्त्री के शील और जीवन को सुरक्षित रखना संघ का सर्वोपरि कर्तव्य था। अतः हम कह सकते हैं कि नारी के शील एवं जीवन की सुरक्षा और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्य रखने हेतु पति की अनुमति के बिना अथवा गर्भवती होने की स्थिति में भी उन्हें जो भिक्षुणी संघ में प्रवेश दे दिया जाता थायह नारी के प्रति जैन संघ की उद्धार एवं गरिमापूर्ण दृष्टि ही थी। सामान्यतया साधना की दृष्टि से भिक्षु-भिक्षुणियों के आहार, भिक्षाचर्या, उपासना आदि से सम्बन्धित नियम समान ही थे, किन्तु स्त्रियों की प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर भिक्षुणियों के लिए वस्त्र के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये गये। उदाहरण के लिए जहाँ भिक्षु सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग कर रह सकता था वहाँ भिक्षुणी के लिए नग्न होना वजित मान लिया गया था । मात्र यही नहीं उसकी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसके वस्त्र संख्या में भी वृद्धि की गयी थी । जहाँ भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्रों का विधान था वहाँ भिक्षुणी के लिए चार वस्त्रों को रखने का विधान था । आगे चलकर आगमिक व्याख्यासाहित्य में न केवल उसके तन ढंकने की व्यवस्था की गयी, बल्कि शील सुरक्षा के लिए उसे ऐसे वस्त्रों को पहनने का निर्देश दिया गया, जिससे उनका शील भंग करने वाले व्यक्ति को सहज ही अवसर उपलब्ध न हो । इसी प्रकार शील सुरक्षा की दृष्टि से भिक्षुणी को अकेले भिक्षार्थ जाना वजित कर दिया गया था । भिक्षुणी तीन या उससे अधिक संख्या में भिक्षा के लिए जा सकती थी। साथ में यह भी निर्देश था कि युवा भिक्षुणी वृद्ध भिक्षुणी को साथ लेकर जाए । जहाँ भिक्ष६ किलोमीटर तक भिक्षा के लिए जा सकता था, वहीं भिक्षुणी के लिए सामान्य परिस्थितियों में भिक्षा के लिए अति दूर जाना निषिद्ध था। इसी प्रकार भिक्षुणियों के लिए सामान्यतया द्वाररहित उपाश्रयों में ठहरना भी वजित था । इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य नारी के शील की सुरक्षा थी। क्योंकि शील ही नारी के सम्मान का आधार था । अतः उसकी शील सुरक्षा हेतु विविध नियमों और अपवादों का सृजन किया गया है। नारी की शील-सुरक्षा के लिए जैन आचार्यों ने एक ओर ऐसे नियमों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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