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________________ ( ३८ ) किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में नारी के अधिकार सीमित किये गये । इस प्रकार काल-क्रम में जैन धर्म में भी भारतीय हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण नारी को उसके अधिकारों से वंचित किया गया था, फिर भी भिक्षुणी केरूप में उसकी गरिमा को किसी सीमा तक सुरक्षित रखा गया था । भिक्षुणी संघ और नारी की गरिमा " जैन भिक्षुणी संघ में नारी की गरिमा को किस प्रकार सुरक्षित रखा गया. इस सम्बन्ध में यहाँ किंचित् चर्चा कर लेना उपयोगी होगा । जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैनधर्म के भिक्षुणी संघ के द्वार बिना किसी भेदभाव के सभी जाति, वर्ण एवं वर्ग की स्त्रियों के लिए खुले हुए थे । जैन भिक्षुणी संघ में प्रवेश के लिए सामान्य रूप से वे ही स्त्रियाँ अयोग्य मानी जाती थीं, जो बालिका अथवा अतिवृद्ध हों अथवा मूर्ख या पागल हों या किसी संक्रामक और असाध्य रोग से पीड़ित हों अथवा जो इन्द्रियों या अंग से हीन हों, जैसे अंधी, पंगु, लूली आदि । किन्तु स्त्रियों के लिए भिक्षुणी संघ में प्रवेश उस अवस्था में भी वर्जित था— जब वे गर्भिणी हों अथवा उनकी गोद में अति अल्पवय का दूध पीता हुआ शिशु हो । इसके अतिरिक्त संरक्षक अर्थात् माता-पिता, पति, पुत्र की अनुज्ञा न मिलने पर भी उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता था । किन्तु सुरक्षा प्रदान करने के लिए विशेष परिस्थितियों में ऐसी स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी जाती थी । निरवायलिकास्त्र के अनुसार सुभद्रा ने अपने पति की आज्ञा के विरुद्ध ही भिक्षुणी संघ में प्रवेश कर लिया था । यद्यपि स्थानांग के अनुसार गर्भिणी स्त्री का भिक्षुणी संघ में प्रवेश वर्जित था, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति, आवश्यक नियुक्ति, आवश्यकचूर्णीमें ऐसे संकेत भी मिलते हैं, जिनके अनुसार कुछ स्त्रियों ने गर्भवती होने पर भी भिक्षुणी संघ में दीक्षा ग्रहण कर ली थी । मदनरेखा अपने पति की हत्या कर दिये जाने पर जंगल में भाग गयी और वहीं उसने भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया । इसी प्रकार पद्मावती और यशभद्रा ने गर्भवती होते हुए भी भिक्षुणी संघ में प्रवेश ले लिया था और बाद में उन्हें पुत्र प्रसव हुए। १. इस समस्त चर्चा के लिए देखें मेरे निर्देशन में रचित और मेरे द्वारा सम्पादित ग्रन्थ — जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ - डॉ० अरुण प्रताप सिंह । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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