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सक को सौंपकर अथवा भिक्षु संघ को सौंपकर ऐसी भिक्षुणी पुनः भिक्षुणी संघ में प्रवेश पा लेती थी। ये तथ्य इस बात के सूचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जैनसंघ सदैव सजग था । नारी-रक्षा
बलात्कार किये जाने पर किसी भिक्षुणो की आलोचना का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षुणी की आलोचना करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था । नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था । निशीथचूणि में उल्लेखित कालकाचार्य की कथा में इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण से पालन करने वाला भिक्षुसंघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ जाता था। निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी (बहन सरस्वती) की शील-सुरक्षा के लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था। निशीथ, बहत्कल्पभाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लेख हैं कि यदि संघस्थ भिक्षुणियों की शोल-सुरक्षा के लिए दुराचारी व्यक्ति की हत्या करने का भी अपरिकार्य हो जाये तो ऐसी हत्या को भी उचित माना गया । नारी के शील की सुरक्षा करनेवाले ऐसे भिक्षु को संघ में सम्मानित भी किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जल, अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए। इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए । इस प्रकार नारी की रक्षा को प्राथमिकता दी गई। सती प्रथा और जैनधर्म
उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला दी गयी हो । यद्यपि निशीथचूणि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सौपारक के पांच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा ने उन्हें १. निशीथणि, भाग १, पृ० १२९ । २. निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २३४ ।
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