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________________ ( २६ ) कुछ जैनाचार्यों ने 'परविवाहकरण' का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह-सम्बन्ध करवाना माना है किन्तु उपासकदशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है। अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है। बहुपत्नी-प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है, जो निवृत्तिप्रधान जैनधर्म को मूल भावना के अनुकूल नहीं है। जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं। आगम साहित्य में पार्व, महावीर एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक पत्नी मानी गई है। विधवा विवाह एवं नियोग यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवा-विवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है। निशीथचणि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भुस्वामी ही होता है। उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है । यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया न हो विधवा विवाह का। क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा यही रही कि जब भी किसी स्त्री या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो जाय । जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संव की शरण में चलो जातो थीं । जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणो संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जोवन जोने का आश्रयस्थल था। यद्यपि कुछ लोगों के द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल पत्नी से विवाह करके विधवा-विवाह की परम्परा को स्थापित किया था। किन्तु आवश्यक चूणि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्रो मृत युगल को बहन थी, पत्नी नहीं। क्योंकि उस. १. उवासकदसा, अभयदेवकृतवृत्ति पृ० ४३ । २. निशीथचूणि, भाग २, ३८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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