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________________ ( २५ ) क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है । उपासकदशा में श्रावक के स्वपत्नी सन्तोषव्रत के अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उसमें 'परविवाहकरण' को अतिचार या दोष माना गया है । 'परविवाहकरण' की व्याख्या में उसका एक अर्थ दूसरा विवाह करना बताया गया है अतः हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जैनों का आदर्श एक पत्नीव्रत ही रहा है । ब बहुपत्नी प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी । आवश्यकचूर्णि के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे । किन्तु उनके लिये दूसरा विवाह इसलिये आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्रो को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था । किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह को भावना के आधार पर नहीं, अपितु अपनी कामवासनापूर्ति और सामा'जिक प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्म सम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा । क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप - में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता । जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पश्चात् बहुविवाह करता है । यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकव्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों को एक से अधिक पत्नियाँ थीं । किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला । आदर्श स्थिति तो एक 2 1 पत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही एक से अधिक पत्नियाँ थीं । शेष सभी को एक-एक पत्नी थी साथ ही उसमें श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं। उनमें स्वपत्नी सन्तोष व्रत का एक अतिचार ' पर विवाहकरण' है ।' यद्यपि १. उवासकदसा १, ४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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