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________________ ( ९० ) जैन दर्शन में अन्य दर्शनों में विकसित दर्शन और न्याय के समान जैनन्याय और दर्शन को संस्कृतभाषा में निवद्ध कर लघीयस्त्रय जैसे महान् सूत्रात्मक ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रन्थों में उन्होंने ही परम्परा से प्राप्त चिन्तन को युग के अनुरूप ढाँचे में ढालने के लिये सर्वप्रथम प्रमाण, प्रमेय, नय आदि की अकाटय परिभाषायें स्थिर की तथा अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध न्याय और तर्कशास्त्र के ऐसे बीज जो जैन परम्परा में नहीं थे, स्वीकार कर उन्हें आगमिक रूप दिया । अन्त में "उपसंहार" है, जिसमें भट्ट अकलंक द्वारा जैन न्याय और दर्शन के क्षेत्र में किये गये उनके अवदान का संक्षेप में उल्लेख करते हुए शोध के निष्कर्षों का समावेश किया गया है। परिशिष्ट में सन्दर्भ ग्रन्थ सूची एवं भट अकलंक विषयक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध लेखों की सूची प्रस्तुत की गयी है। भारतीय दर्शनों में ऐतिहासिक दृष्टि से जैन न्याय को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने वाले भट्ट अकलंक प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने अपने तीन प्रकरणों वाले सूत्रशैली में निबद्ध लघु ग्रन्थ 'लधीयस्य" में जैन न्याय का तार्किक विवेचन किया है।। अकलंक और उनके लघीयस्त्रय विषयक उपयुक्त अध्ययन के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि लघीयस्त्रय भट्टाकलंक का एक महान दार्शनिक ग्रन्थ है, जिस पर किया गया मेरा यह दार्शनिक अध्ययन एक लघु प्रयास है । हम समझते हैं कि जैन न्याय और दर्शन को समझने के लिए यही एक ग्रन्थ पर्याप्त है। अब आवश्यकता इस बात की है कि भट्ट अकलंक के ग्रन्थों का राष्ट्रभाषा में प्रामाणिक अनुवाद हो, जिससे संस्कृत न जानने वाले समीक्षक जैन त्याय और दर्शन का मूल्यांकन करके भारतीय न्यायशास्त्र के इतिह स में भट्ट अकलंक एवं उनके अवदान का निर्धारण कर सकें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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