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________________ (८८) न्तर सम्मत उपमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का परोक्ष प्रमाण में विभिन्न युक्तियोंपूर्वक अन्तर्भाव दिखाया गया है। "प्रमाण का विषय, फल और प्रमाणाभास'' के प्रतिपादन के लिए अध्याय षष्ठ रखा गया है। इसमें बताया गया है कि प्रमाण का विषय द्रव्य पर्यायात्मक, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययूक्त अर्थ, अनेकात्मक हैं। इसलिए प्रमाण के विषय की उपलब्धि एकान्तिक दृष्टि से नहीं की जा सकती। इस प्रसंग में बौद्धादि के गम्य स्वलक्षण, क्षणिकवाद, सन्तानवाद, नित्यवाद आदि की समीक्षा की गयी है। प्रमाणफल की चर्चा में यह सिद्ध किया गया है कि युगपद् सर्वावभासक ज्ञान-प्रमाण का फल उपेक्षा; क्रमभावि ज्ञान-प्रमाण का फल उपेक्षा तथा हेय एवं उपादेय बुद्धि है तथा सभी ज्ञान-प्रमाण का फल अपने विषय में अज्ञान का नाश है। गति आदि ज्ञानों में साक्षात्फल और परम्परा फल के सयुक्तिक विवेचनपूर्वक अवग्रहादि भेदों की प्रमाणफल व्यवस्था बतायी गयी है। इसी अनुक्रम में प्रमाणपत्र के भिन्नत्व-अभिन्नत्व पर विचार करने के साथ विभिन्न मतावलम्बियों की प्रमाणफल की व्यवस्था की समीक्षा की गयी है। प्रमाणाभास की चर्चा में प्रमाणाभास का स्वरूप, भेद, उनके आधार तथा अन्य मतावलम्बियों के मत को किस प्रमाणाभास के अन्तर्गत रखा जाय; इत्यादि पर विचार किया गया है। ___अध्याय सप्तम "नयसीमांसा'' में तीन परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में सकलादेशी नय की परिभाषा पर विशेष रूप से विचार किया गया है। इससे सम्बन्धित विभिन्न पक्षों-ज्ञाता का अभिप्राय, वक्ता-श्रोता की स्थिति, नय के स्वरूप की ऐतिहासिक दृष्टि, सुनय-दुर्नय आदि पर विचार करके, नय के भेदों पर विचार किया गया है। इसमें बताय। गया है कि द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके रूप में मुलनय दो ही हैं। परन्तु नयों का अर्थनय और शब्दनय के रूप में भी विभाजन किया जा सकता है। नैगमादि नयों को इन्हीं नय के मल दो भेदों में विभक्त किया गया है। इस प्रसंग में अकलंक के इन कथन से कि “निश्चय और व्यवहार नय द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय के आश्रित नय हैं'' निश्चय और व्यवहार की समस्या का समाधान हो जाता है। इस अध्याय के द्रव्यार्थिक नय नामक द्वितीय परिच्छेद में द्रव्याथिक नय की व्युत्पत्ति, स्वरूप, अर्थाय के रूप में उसकी मान्यता आदि के विचारपूर्वक इसके भेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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