SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४३ ) (१) आचार्य कुन्दकुन्द (विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी) कृत 'समाधि-तन्त्र' में ध्यान तथा भावना का निरूपण किया गया है। (२) पूज्यपाद देवनन्दि (५वीं ६ठीं शताब्दी) कृत 'समाधितन्त्र' । (३) आचार्य जिनसेन (९वीं शताब्दी) कृत 'महापुराण' । (४) आचार्य शुभचन्द्र (११वीं शताब्दी) कृत 'ज्ञानार्णव' । (५) आचार्य रामसेन (११वीं शताब्दी) कृत 'तत्त्वानुशासन'। (६) आचार्य सोमदेवसूरि (विक्रम की ११वीं शती) कृत 'योगसार'। (७) विनयविजय जी (१८वीं शती) कृत 'शान्तसुधारस'।। इसके अतिरिक्त आशाधर जी कृत 'आध्यात्म-रहस्य' भी है। इनमें शुभचन्द्र पर हरिभद्र का प्रभाव देखा जाता है। अन्त में यह कह सकते हैं कि आचार्य हरिभद्र की योग परम्परा को जिन आचार्यों ने आगे बढ़ाया उनमें प्रमुख आचार्य 'हेमचन्द्र', 'शुभचन्द्र' और उपाध्याय यशोविजय जी हैं ।' ___साथ ही इस अध्यायमें हमने हरिभद्र की समत्व योग, योग साधना और मन तथा मन के स्थिरीकरण के उपाय पर प्रकाश डाला है। चतुर्थ अध्याय में हरिभद्र की योग दृष्टियाँ और उनकी पातंजल कृत अष्टांग-योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम) से उनकी समानता आदि का विस्तृत विवेचन है, साथ ही दोनों दृष्टियों में क्या सम्बन्ध है यह बताने का प्रयास भी किया गया है ।। __पाँचवें अध्याय में योग साधना की भूमिका में यह बताया गया है कि जैन दर्शनानुसार रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को मोक्ष का कारणभूत माना गया है। अतः योग के लिए चारित्र आधारस्तम्भ है। इसकी विवेचना तथा चारित्र की दृढ़ता के लिए जैन दर्शन में विभिन्न व्रतों-क्रियाओं आदि का विधान है जिसमें तप, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख हैं, ये सभी चारित्र ही हैं। साथ ही जैन आचार की हरिभद्र आचार से तुलनाहरिभद्र ने चारित्रशील के चार लक्षणों का प्रतिपादन किया है२. लेख-'योगपरम्परा में आचार्य हरिभद्र का योगदान" लेखिका-----कु० अरुणाआनन्द, पृ० १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy